SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० भारतीय पुरालिपि-शास्त्र में जैसे, मथुरा न्यू सिरीज सं. 38, 39 में, ई की मात्रा केवल एक भंग है जो दायें को जा रही है, पर दो सींगों वाले (जैसे दी, 24, I में) और फंदेवाले (जैसे भी, 30, IV में ) रूप अधिक प्रचलित हैं । उ की मात्रा के लिए पुराने भंग का ही प्रयोग अधिकांशतया होता है, जो रु (33, III, VI) में असामान्य ढंग से र के आखीर में लगा है। गु (8, II, VI) तु, भु (30, I) और शु (36, III) में स्वर का चिह्न ऊपर को उठ गया है। गू (9, IV) में ऊ की मात्रा का पुराना चिह्न ही चल रहा है। पर भू (30, II, VI) और टू (42, II) में ऊ की मात्रा के दूसरे रूप भी हैं। धू (25, II, VI) में इसका जो भंग वाला रूप है वह बाद में खूब चला। ऐ और ओ की एक मात्रा प्रायः लंबवत् लगती है जैसे, ग (32, III); गो (9, III) और णो (21, III) में । ____16. जगह की बचत के लिए घसीट ञ, ट (दे. ष्ट, 45, IX) और थ (देखि. स्था, 45, V; स्था 46, IX) यदि संयुक्तारों में दूसरे अवयव हों तो बगल में रख दिये जाते हैं। पांचवीं शती से र्य (45, VII) लिखने में पूरा र बनाकर उसके नीचे य लिखते थे। 17. इसी प्रकार पांचवीं शती से ही विराम का चिह्न (दे. द्धम्, 43 VII) जिसके बारे में हम निश्चित रूप से कह सकते हैं, पहली बार मिलना शुरू होता है। इसके लिए लघु अंत्याक्षर के ऊपर एक आड़ी लकीर बना देते हैं। उत्तरी जिह्वामूलीय (:क, 46, II) और उपध्मानीय (:पा, 46, III) चौथी शती में ही मिल चुके हैं। इ. हस्तलिखित ग्रंथों में गुप्तलिपि बावर की हस्तलिखित प्रति के बारे में हानली की और मेरी भी12 मान्यता है कि वह पांचवीं शती की है । फल. VI, स्त. I--IV में मैंने हार्नली द्वारा A अंकित अंश की ही वर्णमाला दी है। पुरा लिपिक परीक्षण के लिए उनके द्वारा B और C अंकित अंश पर्याप्त नहीं हैं। इसके अक्षर गुप्तकालीन अभिलेखों से, विशेषकर ताम्रपट्टों से बहुत कम भिन्नता रखते हैं। अक्षरों की खड़ी लकीरों के सिरों पर लगने वाले शोशे अवश्य ही अधिक सावधानी और सफाई से बनाए गये हैं । खड़ी रेखाओं के सिरों पर शोशे लगने से तो ये लकीरें सचमुच कीलों की तरह ____212. ज. ए. सो. बं. LX, 92; वी. त्सा. कुं. मो. V, पृ. 104 तथा आगे । सातवीं शती के एक ऐसे अभिलेख का पता चला है जिसमें अधिकांश रूप में त्रिपक्षीय य का प्रयोग है, ए. ई. VI, 29 । इससे हानली के तर्कों में परिवर्तन की आवश्यकता हो गयी है, किंतु उनके अंतिम निष्कर्ष गलत नहीं सिद्ध हुए हैं। 100 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy