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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय पुरालिपि-शास्त्र 12. य (31, III, IV) में अधिकतर वामांग में हुक या वृत्त बनता है। संयुक्ताक्षरों में यह फंदेदार, जैसे र्य (42, III) में; या द्विपक्षीय, जैसे र्य (41, V) में, होता है। 13. व का बायां हिस्सा कभी-कभी गोल हो जाता है (34, V)। कभीकभी व का रूप च जैसा भी हो जाता है, जैसे र्व (42, IV) में । ___14. श और पतला हो जाता है (35, III-V)। इसके बीच की आड़ी लकीर अक्षर के पेट में एक सिरे से दूसरे तक चली जाती है। कभी-कभी बाई लकीर के निचले भाग में एक शोशा बनता है या दाईं लकीर बाईं से लंबी कर देते हैं, जैसे ग (9, V) में, होता है। मिला. फल. IV, 36, I तथा आगे । 15. ष के बीच का डंडा अक्षर के पेट में एक सिरे से दूसरे सिरे तक चला जाता है (36, III-V)। _____16. स का वामांग कभी-कभी, पर बिरले ही, फंदे की शक्ल का हो जाता है (37, IV) । मिला. फल. IV, 38, I तथा आगे । ये सभी विशिष्टताएं और स्वरों को विकसित मात्राएं, जैसे रा (32, IV) में आ की मात्रा, कु (7, IV, V) और स्तु ( 43, V ) 176 में उ की मात्रा और तो (21, IV) में ओ की मात्रा, अगले काल की उत्तरी लिपियों, गुप्त अभिलेखों (फल. IV, I--VII) और बावर की हस्तलिखित पुस्तक (फल. VI, स्त. I--III) में या तो पुनः इसी रूप में निरंतर मिलती हैं या फिर इनका अगला चरण उनमें दिखाई पड़ता है। ईसा की प्रथम दो शताब्दियों में मथुरा में जिन साहित्यिक लिपियों का इस्तेमाल होता था, उनके बारे में अधिक संभावना यही है कि इनमें और बाद की लिपियों में कोई भेद नहीं है या ये उनसे बहुत मिलती-जुलती हैं। कुषान काल के अभिलेखों में जो अपेक्षाकृत पुराने रूपों का मेल है उसका कारण संभवतः पुराने दानलेखों का अनुकरण ही है। तृ (21, IV) और वृ (34, III) में ऋ की मात्रा की ओर ध्यान दिलाना भी जरूरी है। इसके लिए एक बार 17 फलक IV, 3, III वाला रूप भी मिलता है। इसी प्रकार अंतिम हलन्त म की ओर जो द्धम् (41, VIII) के हलन्त म से मिलता-जुलता है और विसर्ग की ओर भी ध्यान आकर्षित किया जा सकता है जो ठीक आधुनिक विसर्ग की तरह का है (मिला. 40, 41, IX) । विसर्ग 176. मिला. फल. II, 43, III के तु से । 177. ए. ई. I, 389 सं. 13 84 For Private and Personal Use Only
SR No.020122
Book TitleBharatiya Puralipi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeorge Buhler, Mangalnath Sinh
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1966
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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