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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतके प्राचीन राजवंश महाक्षत्रप उपाधिवाले उक्त समयके सिक्कोंके न मिलनेसे यह भी अनुमान होता है कि शायद उस समय इस राज्य पर किसी विदेशी शक्तिकी चढ़ाई हुई हो और उसीका अधिकार हो गया हो। परन्तु जब तक अन्य किसी वंशके इतिहाससे इस बातकी पुष्टि न होगी तब तक यह विषय सन्दिग्ध ही रहेगा। रुद्रसिंह द्वितीय । [श०सं०२२७-२३४(ई०स० ३०५-३१x-वि० सं० ३६२-३६+)] यह स्वामी जीवदामाका पुत्र था। इसके सबसे पहले श०सं०२२७ के क्षत्रप उपाधिवाले चाँदीके सिक्के मिले हैं और इसके पूर्वके श०सं० २२६ तकके क्षत्रप विश्वसेनके सिक्के मिलते हैं । अतः पूरी तौरसे नहीं कह सकते कि यह रुद्रसिंह द्वितीय श०-सं० २२६ में ही क्षत्रप होगया था या श०-सं० २२७ में हुआ था। श०सं० २३९ के इसके उत्तराधिकारी क्षत्रप यशोदामाके सिक्के मिले हैं । अतः यह स्पष्ट है कि इसका अधिकार श०सं०२२६ या २२७ से आरम्भ होकर श०सं० २३९ की समाप्तिके पूर्व किसी समय तक रहा था। इसके सिकों पर एक तरफ “स्वामी जीवदामपुत्रस राज्ञो क्षत्रपस रुद्रसिहसः” और दूसरी तरफ मस्तकके पीछे संवत् लिखा मिलता है । इसके पुत्रका नाम यशोदामा था। __ यशोदामा द्वितीय । [ श०सं० २३९-२५४ ( ई०स०३१७-३३२=वि० सं० ३७४-३८९)] यह रुद्रसिंह द्वितीयका पुत्र था । इसके श० सं० २३९ से २५४ तकके चाँदीके सिक्के मिले हैं । इन पर "राज्ञ क्षत्रपस रुद्रसिहपुत्रस राज्ञ (१) इसके सिक्कोंके संवतोंमेंसे केवल २३१ तकके ही संवत् स्पष्ट पढ़े गये हैं। अगले संवतोंके अङ्क साफ नहीं हैं। ३२ For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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