SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतके प्राचीन राजवंश सं० १६० में ही क्षत्रप हो गया था क्योंकि इसी वर्षके इसके भाईके भी क्षत्रप उपाधिवाले सिक्के मिले हैं। यशोदामाके क्षत्रप उपाधिवाले चाँदीके सिक्कोंपर उलटी तरफ "राज्ञो महाक्षवपस दामसेनस पुत्रस राज्ञः क्षत्रपस यशोदाम्न" और सीधी तरफ श० सं० १६० लिखा होता है। · इसके महाक्षप उपाधिवाले सिक्के भी मिलते हैं । इससे प्रकट होता है कि ईश्वरदत्त द्वारा छीनी गई अपनी वंश-परंपरागत महाक्षत्रपकी उपाधिको श० सं० १६१ में इसने फिरसे प्राप्त की थी। इस समयके इसके सिक्कों पर उलटी तरफ “ राज्ञो महाक्षत्रपस दामसेनस पुत्रस राज्ञो महाक्षत्रपस यशोदाम्नः" और सीधी तरफ श० सं० १६१ लिखा मिलता है। विजयसेन। [ श० सं० १६०-१७२ (ई० स० २३८-२५० वि० सं० २९५-३०७)] यह दामसेनका पुत्र और वीरदामा तथा यशोदामाका भाई था। इसके भी शक-संवत् १६० के क्षत्रप उपाधिवाले चाँदीके सिक्के मिले हैं। इसी संवत्के इसके पूर्वोक्त दोनों भाईयोंके भी क्षत्रप उपाधिवाले सिक्के मिले हैं । विजयसेनके इन सिक्कों पर एक तरफ "राज्ञो महाक्षत्रपस दामसेनपुत्रस राज्ञः क्षत्रपस विजयसेनस" और दूसरी तरफ शक-सं० १६० लिखा रहता है। शक-सं० १६२ से १७२ तकके इसके महाक्षत्रप उपाधिवाले सिक्के भी मिले हैं । इन पर एक तरफ “राज्ञो महाक्षत्रपस दामसेनपुत्रस राज्ञो महाक्षत्रपस विजयसेनस' लिखा रहता है, परन्तु अभी तक यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि शक-सं० १६१ में यह क्षत्रप ही था या महाक्षत्रप हो गया था। आशा है उक्त संवत्के इसके साफ सिक्के मिल जाने पर . यह गड़बड़ मिट जायगी। For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy