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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षत्रप-वंश । नासिकसे मिले एक लेखमें क्षत्रप नहपानके जामाता उषवदातको शक लिखा है। इससे पाया जाता है कि, यद्यपि करीब ३०० वर्ष भारतमें राज्य करनेके कारण इन्होंने अन्तमें भारतीय नाम और धर्म ग्रहण कर लिया था और क्षत्रियोंके साथ वैवाहिक सम्बन्ध भी करने लग गये थे, तथापि पहलेके क्षत्रप वैदिक और बौद्ध दोनों धर्मोको मानते थे और अपनी कन्याओंका विवाह केवल शकोंसे ही करते थे। भारतमें करीब ३०० वर्ष राज्य करनेपर भी इन्होंने 'महाराजाधिराज' आदि भारतीय उपाधियाँ ग्रहण नहीं की और अपने सिक्कोंपर भी शक-संवत् ही लिखवाते रहे । इससे भी पूर्वोक्त बातकी पुष्टि होती है। रिवाज । जिस प्रकार अन्य जातियोंमें पिताके पीछे बड़ा पुत्र और उसके पीछे उसका लड़का राज्यका अधिकारी होता है उस प्रकार क्षत्रपोंके यहाँ नहीं होता था। इनके यहाँ यह विलक्षणता थी कि पिताके पीछे पहले बड़ा पुत्र, और उसके पीछे उससे छोटा पुत्र । इसी प्रकार जितने पुत्र होते थे वे सब उमरके हिसाबसे क्रमशः गद्दी पर बैठते थे । तथा इन सबके मर चुकने पर यदि बड़े भाईका पुत्र होता तो उसे अधिकार मिलता था। अतः अन्य नरेशोंकी तरह इनके यहाँ राज्याधिकार सदा बड़े पुत्रके वंशमें ही नहीं रहता था । शक-संवत् । फर्गुसन साहबका अनुमान है कि शक-संवत् कनिष्कने चलाया था। परन्तु आज कल इसके विरुद्ध अनेक प्रमाण उपस्थित किये जाते हैं। इनमें मुख्य यह है कि कनिष्क शक-वंशका न होकर कुशन-वंशका था। लेकिन यदि ऐसा मान लिया जाय कि यह संवत् तो उसीने प्रचलित किया था, परन्तु क्षत्रपोंके आधिकार-प्रसारके साथ ही इनके लेखदिकोंमें लिखे जाने से सर्वसाधारणमें इसका प्रचार हुआ, और इसी कारण इसके चलाने वाले कुशन राजाके नाम पर इसका (१) Ep. Ind., Vol. VIII. p. 85. For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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