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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बंगाल फतह किया था । परन्तु इस पर भी सन्तोष न होनेके कारण उसने कामरूप, आसाम और तिब्वत पर भी चढ़ाई कर दी; जहाँसे हारकर लौटते हुए हिजरी सन् ६०० ( वि० सं० १२६१) में देवकोटमें वह अपने ही एक अमीर अलीमरदानके हाथसे मारा गया । इन संनवंशक इतिहासमें दूसरा वादविवादका विषय लखमनसेन संवत् है । पहले तो यह संवत् वंगाल और बिहारमें चलता था, पर अब सिर्फ मिथिलामें ही चलता है । अकबरनामेसे जाना जाता है कि सम्राट अकबरने जब अपना सन् ' इलाही सन् ' के नामसे चलाया था तब उसके वास्ते एक बहुत बड़ा फ़रमान निकाला था । उसमें लिखा है कि हिंदुस्तानमें कई तरहके संवत् चलते हैं । उनमें एक लखमनसेन संवत् बंगालमें चलता है और वहाँके राजा लखमनसेनका चलाया हुआ है, जिसके अबतक हिजरी सन् ९९२, विक्रमसंवत् १६४१ और शालिवाहनके शक संवत् १५०५ में ४६५ बरस बीते हैं । इससे जाना जाता है कि लखमनसेन संवत विक्रमसंवत् ११७६ और शक संवत् १०४१ में चला था। परन्तु वाँकीपुरकी द्विजपत्रिकामें इसके विरुद्ध शक संवत् १०२८ में लखमनसेनका बंगाल के राजसिंहासन पर बैठकर अपना संवत् चलाना लिखा है। इन दोनोंमें १३ बरसका फर्क पड़ता है; क्योंकि श० सं० १०२८ वि० सं० ११६३ में था । अकबरनामेके लेखसे इस समय वि० सं० १९७७ में लखमनसेन संवत् ८०१ और द्विजपत्रिकाके हिसाबसे ८१४ होता है । न मालम मिथिलाके पंचांगों में इसकी सही संख्या आजकल क्या है । आरा नागरीप्रचारिणीपत्रिकाके चौथे बरसकी तीसरी संख्यामें विद्यापति ठाकुरके शासन गाँव विस्पीका दानपत्र छपा है । उसके गद्यभागके अन्तमें तो लक्ष्मणसेन संवत् २९३ सावन सुदी ७ गुरौ खुदा है। परन्तु पद्यविभागमे श्लोकोंके नीचे तीन संवत् इस तौरसे खुदे हैं: सन् ८०७ संवत् १४५५ शके १३२९ ये तीनों मंवत और चौथा लक्ष्मणसेन संवत् ये चारों ही संवत् बेमेल हैं, क्योंकि ये गणितमे आपसमें मेल नहीं खाते । यदि संवत् १४५५ और शको For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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