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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेन-वंश। बल्लालसेनके २५० वर्ष बाद हुआ था । इससे स्पष्ट है कि सेनवंशी राजा बल्लालसेन वैद्य बल्लालसेनसे पृथक् था और उसके समयका बल्लालचरित भी इस बल्लालचरितसे जुदा था । दोनोंका एकही नाम होनेसे यह भ्रम उत्पन्न हुआ है, और, जान पड़ता है, इसी भ्रमसे उत्पन्न हुई किंवदन्तीको सच समझकर अबुलफजलने भी सेन-वंशियोंको वैद्य लिख दिया है । उनके शिलालेखोंसे उनके चन्द्रवंशी होनेके कुछ प्रमाण नीचे दिये जाते हैं १-राजत्रयाधिपति-सेन-कुलकमल-विकास-भास्कर-सोमवंशप्रदीपै । २-भुवः काञ्चीलीलाचतुरचतुरम्भोधिलहरी परीताया भर्ताऽजनि विजयसेनः शशिकुले । इस वंशके राजा पहले कर्णाटककी तरफ रहते थे। सम्भव है, वहाँ पर वे किसीके सामन्त राजा हों । परन्तु वहाँसे हटाये जानेपर पहले सामन्तसेन वदेशमें आया और गङ्गाके तटपर रहने लगा। बहुतोंका अनुमान है कि वह प्रथम नवद्वीपमें आकर रहा था । इनके राज्य-कालमें बौद्धधर्मका नाश होकर वैदिक धर्मका प्रचार हुआ। १-सामन्तसेन । दक्षिणके राजा वीरसेनके वंशमें यह राजा उत्पन्न हुआ था । इसीसे इस वंशकी शृङ्खलाबद्ध वंशावली मिलती है । डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्रका अनुमान है कि वङ्गदेशमें कुलीन ब्राह्मणोंको लानेवाला शूरसेन नामका राजा यही वीरसेन है; क्योंकि शूर और वीर दोनों शब्द पर्यायवाची हैं । परन्तु इतिहाससे सिद्ध होता है कि वङ्गदेशमें शूरसेन (१) J. Bm. A. S. 1896. P. 13. (२) अद्भुतसागर, श्लोक ४ (३) Ep. Ind.. Vol. I, P. 307-8. For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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