SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मालवेके परमार। भोजशालाके स्तम्भ पर नागबन्धमें जो व्याकरणकी कारिकायें खुदी हैं उनके नीचे श्लोक भी हैं। उनका आशय क्रमशः इस प्रकार है: (१) वर्गों की रक्षाके लिए शैव उदयादित्य और नरवर्माके खड़ सदा उद्यत रहते थे। ( यहाँ पर 'वर्णा' शब्दके दो अर्थ होते हैं। एक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण; दूसरा क, ख आदि अक्षर ।) (२) उदयादित्यका वर्णमय सर्पाकार खड़ विद्वानों और राजाओंकी छाती पर शोभित होता था। 'उन' गाँवके नागबन्धके नीचे भी उल्लिखित दूसरा श्लोक खुदा हुआ है । परन्तु महाकालके मन्दिर में प्राप्त हुए उल्लेखके टुकड़ेमें पूर्वोक्त दोनों श्लोकोंके साथ साथ निम्नलिखित तीसरा श्लोक भी है। उदयादित्यनामाङ्कवर्णनागकृपाणिका । -~~-~- मणिश्रेणी सृष्टा सुकविबन्धुना ॥ इस श्लोकमें शायद सुकवि-बन्धुसे तात्पर्य नरवर्मासे है । पूर्वोक्त तीनों स्थानोंके नागबन्धोंको देख कर अनुमान होता है कि इनका कोई न कोई गूढ आशय ही रहा होगा। नरवर्माके तीसरे भाई जगदेवका जिक्र हम पहले कर चुके हैं । अमरुतशतककी टीकामें अर्जुनवर्माने भी जगदेवका नाम लिखा है। कथाओंमें यह भी लिखा है कि नरवर्माकी गद्दी पर बैठानेके बाद जगदेव उससे मिलने धारामें आया, तथा नरवर्माकी तरफसे कल्याणके चौलुक्यों पर उसने चढ़ाई की । उस युद्धमें चौलुक्यराजका मस्तक काट कर जगदेवने नरवर्मा के पास भेजा। जगदेवके वर्णनमें लिखा है कि उसने अपना मस्तक अपने ही हाथसे काट कर कालीको दे दिया था । इस बात के प्रमाणमें यह कविता उद्धत की जाती है ! (१) J. B. R. A.S; Vol. XXI, P. 35. १४३ For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy