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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतके प्राचीन राजवंश अर्थात् कविराज भोजकी कहाँ तक प्रशंसा की जाय। उसके दान, ज्ञान और कार्योंकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। कल्हण-कृत राजतरङ्गिणीमें भी, राजा कलशके वृत्तान्तमें, भोजके दान और विद्वत्ताकी प्रशंसा है। इसका वर्णन हम भोजका राजत्वकाल निश्चय करते समय करेंगे। काव्यप्रकाशमें मम्मटने भी, उदात्तालङ्कारके उदाहरणमें, भोजके दानकी प्रशंसाका बोधक एक श्लोक उद्धृत किया है। उसका चतुर्थपाद यह है: ___ यद्विद्वद्भवनेषु भोजनृपतेस्तत्त्यागलीलायितम् । अर्थात् भोजके आश्रित विद्वानोंके घरोंमें जो ऐश्वर्य्य देखा जाता है वह सब भोजहीके दानकी लीला है। गिरनारमें मिली हुई वस्तुपालकी प्रशस्तिमें भी भोजकी दानशीलताकी प्रशंसाका उल्लेख है । प्रबन्धकारोंने तो इसकी बहुत ही प्रशंसा की है। ___ यह राजा शैव था, जैसा कि उदयपुरकी प्रशस्तिके २१ वें श्लोकसे ज्ञात होता है । यथाः तत्रादित्यप्रतापे गतवति सदनं स्वर्गिणां भर्गभक्ते । व्याप्ता धारेव धात्री रिपुतिमिरभरैम्मौललोकस्तदाभूत् ।। अर्थात् उस तेजस्वी शिवभक्त के स्वर्ग जाने पर धारा नगरीकी तरह तमाम पृथ्वी शत्रुरूपी अन्धकारसे व्याप्त होगई। __भोज दूसरे धर्मके विद्वानोंका भी सम्मान करता था। जैनों और हिन्दुओंके शास्त्रार्थका बड़ा अनुरागी था। श्रवणबेलगुल नामक स्थानमें कनारी भाषामें एक शिलालेख बिना सन-संवत्का मिला है। उसे डाक्टर राइस १११५ ईसवीका बताते हैं। उसमें लिखा है कि भोजने प्रभाचन्द्र जैनाचार्यके पैर पूजे थे। For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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