SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आबूके परमार । स. १२३०) में आबू पर तेजपालके मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई । यह मन्दिर हिन्दुस्तानकी उत्तमोत्तम कारीगरीका नमूना समझा जाता है । इस मन्दिरके लिए इस राजाने डबाणी गाँव दिया था। विक्रम संवत् १२८७ के सोमसिंहके समयके दो लेख इसी मन्दिरमें लगे हैं। विक्रम संवत् १२९० का एक शिला-लेख गोड़वाड़ परगनेके नाण गाँव (जोधपुर-राज्य) में मिला है। उससे प्रकट होता है कि सोमसिंहने अपने जीतेजी अपने पुत्र कृष्णराजको युवराज बना दिया था। उसके खर्च के लिये नाणा गाँव (जहाँ यह लेख मिला है ) दिया गया था । १६-कृष्णराज तीसरा । यह सोमसिंहका पुत्र था और उसके पीछे उसका उत्तराधिकारी हुआ । इसको कान्हड़ भी कहते थे। पाटनारायणके लेखमें इसका नाम कृष्णदेव और वस्तुपाल-तेजपालके मन्दिरके दूसरे लेखमें कान्हड़देवलिखा है । अपने युव-राजपनमें प्राप्त नाणा गाँवमें लकुलदेव महादेवकी पूजाके निमित्त इसने कुछ वृत्ति लगा दी थी। अतः अनुमान होता है कि यह शैव था । इसके पुत्रका नाम प्रतापसिंह था ।। १७-प्रतापसिंह । यह कृष्णराजका पुत्र था । उसके बाद यह गद्दी पर बैठा । जैत्रकर्णको जीत कर दूसरे वंशके राजाओंके हाथमें गई हुई अपने पूर्वजोंकी राजधानी चन्द्रावतीको इसने फिर प्राप्त किया। यह बात पाटनारायणके लेखसे प्रकट होती है । यथाः. कामं प्रमथ्य समरे जगदेकवीरस्तं जैत्रकर्णमिह कर्णमिवेन्द्रसूनुः । चन्द्रावती परकुलोदधिदूरमग्नामुर्वी वराह इव यः सहसोद्दधार ॥ १८ ॥ यह जैत्रकर्ण शायद मेवाड़का जैत्रसिंह हो, जिसका समय विक्रम(१) लकुलीश महादेव (लकुलदेव) की मूर्ति पद्मासनसे बैठी हुई जैनमूर्तिके समान होती है । उसके एक हाथमें लकड़ी और दूसरेमें बिजौरेका फल होत है। उसमें ऊर्चरेता होनेका चिह्न भी रहता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy