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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतके प्राचीन राजवंश वर्ष ( सन् जुलूस ) लिखना प्रारम्भ किया, और त्रिभुवनमल्ल, भुजबलचक्रवर्ती और कलचुर्यचक्रवर्ती विरुद (खिताब ) धारण किये, तथापि कुछ समयतक महामण्डलेश्वर ही कहाता रहा । किन्तु श० सं० १०८४ (वि०सं० १२१९) के लेखमें उसके साथ समस्त भुवनाश्रय, महाराजाधिराज, परमेश्वर परमभट्टारक आदि स्वतन्त्र राजाओंके खिताब लगे हैं। इससे अनुमान होता है कि वि० सं० १२१९ के करीब वह पूर्ण रूपसे स्वातन्त्र्यलाभ कर चुका था। विज्जल द्वारा हराए जाने के बाद कल्याणको छोड़कर तैल अरणोगिरि (धारवाड़ जिले) में जा रहा । परन्तु वहाँपर भी विज्जलने उसका पीछा किया, जिससे उसको वनवासीकी तरफ जाना पड़ा। विज्जलने कल्याणके राज्यसिंहासन पर अधिकार कर लिया, तथा पश्चिमी चौलुक्य राज्यके सामन्तोंने भी उसको अपना अधिपति मान लिया । विज्जलके राज्यमें जैनधर्मका अधिक प्रचार था। इस मतको नष्ट कर इसके स्थानमें शैवमत चलानेकी इच्छासे बसव नामी ब्राह्मणने 'वीरशैव ' ( लिंगायत ) नामका नया पंथ चलाया । इस मतके अनुयायी वीरशैव (लिंगायत ) और इसके उपदेशक जंगम कहलाने लगे। इस मतके प्रचारार्थ अनेक स्थानोंमें बसवने उपदेशक भेजे । इससे उसका नाम उन देशोंमें प्रसिद्ध हो गया। इस मतके अनुयायी एक चाँदीकी डिबिया गलेमें लटकाए रहते हैं । इसमें शिवलिंग रहता है। लिंगायतोंके 'बसव-पुराण' और जैनोंके 'विज्जलराय-चरित्र' नामक ग्रन्थों में अनेक करामातसूचक अन्य बातोंके साथ बसव और विज्जलदेवका वृत्तान्त लिखा है। ये पुस्तकें धर्मके आग्रहसे लिखी गई हैं । इसलिए इन दोनों पुस्तकोंका वृत्तान्त परस्पर नहीं मिलता । 'बसवपुराण' में लिखा है:-"विज्जलदेवके प्रधान बलदेवकी पुत्री गंगादेवीसे बसवका विवाह हुआ था। बलदेवके देहान्तके बाद बसवको उसकी For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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