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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२६ भारत-भज्य-रत्नाकरः [ सकारादि लीमें बांधकर) योनिमें रखनेसे वह संकुचित हो वर्र (ततैन) के दंशसे उसका डंक निकालकर जाती है। वहां शालवृक्षका रस ( या तारपीनका तेल ) लगा (३) माजूफल, त्रिफला, कत्था, धायके फूल, देना चाहिये। फिटकरी और सुपारी समान भाग ले कर चूर्ण (८३८८) सर्पकञ्चुकी योगः बनावें और उसे पानीमें धोट कर बड़ी बड़ी गोलियां बना लें। (रा. मा. : स्त्रीरोगा. ३०) इनमें से १ गोली २ घडी तक योनिमें पुटदग्धभुजगकञ्चुककज्जलमधुपूरिते क्षणद्वन्द्वात्। रखनेसे योनि संकुचित हो जाती है । सद्यो भवति विशल्या विमूढगर्भाऽपि गर्भवती ॥ (८३८५) समङ्गादियवागू सांपकी कांचलीको सम्पुटमें बन्द करके भस्म (व. से. । बालरोगा.) करें और फिर बारीक पीसकर शहद में मिला लें। समगाशाल्मलीवेष्टं धातकीपमकेसरैः ।। । इसे योनिमें भरनेसे मूढगर्भ भी तुरन्त बाहर पिष्टैरेतयेवाग्रः स्यादतीसारविनाशिनी ॥ आ जाता है । लज्जालुमूल, सेंमलकी छाल, धायके फूल और (८३८९) सर्वगन्धम् कमलकेसर समान भाग ले कर पीसकर इनसे यवागू ( भै. र.) सिद्ध करें। | चातुर्जातककर्पूरकक्कोलागुरुशिहकम् । यह यवागू अतिसारको नष्ट करती है। | लवङ्गसहितश्चैव सर्वगन्धं विनिर्दिशेत् ॥ (८३८६) सर्जकाद्यो योगः दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेसर, (व. से. । बालरो.) कपूर, कंकोल, अगर, शिल्हक ( शिलारस ) और अभयाज्य तिलतैलेन सर्जचूर्णावचूर्णिताम् । लवङ्ग-इनको सर्वगन्ध कहते हैं । विच्छिन्ननश्येत्स्थिरैरण्डबीजाभ्याश्च प्रलेपनात् ।। ___(८३९०) सहदेवीमूलबन्धनम् - बालकके विच्छिन्न नामक रोग (ब्रण विशेष) में तिलका तेल मल कर ऊपरसे रालका चूर्ण छिड़क | ( रा. मा. । नेत्ररोगा. ३ ; ग. नि. । नेत्ररो. ३ ) देने से लाभ होता है अथवा शालपर्णी और अरण्डके कर्णे निबद्धं नयनामयन्नं बीजोंको पीस कर लेप करने से भी विच्छिन्न रोग दण्डोत्पलायाः प्रवदन्ति मूलम् । नष्ट हो जाता है। क्षौद्रान्वितः शिग्रुदलोद्भवो वा (८३८७) सर्जरसयोगः रसोऽक्षिण दत्तोऽक्षि रुजापहः स्यात् ॥ (व. से. । विषा.) सहदेवीकी जड़को कानमें बांधने से अथवा सर्जरसेन सेको संदंशेनापि कण्टकोद्धरणम् । सहजनेके पत्तोंके रसमें शहद मिला कर आंखमें वरटीदंष्ट्रविषस्य प्रशमनमेतद् द्वयं दृष्टम् ॥ । लगानेसे नेत्रपीड़ा शान्त हो जाती है। For Private And Personal Use Only
SR No.020118
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages633
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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