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रसप्रकरणम् ]
(८२१५) सितमलगुटिका ( वृ. यो त । त. ८० )
सितमलवली कटुकीखदिरौ
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पञ्चमो भागः
fertseit नयनाक्षिमितौ । पुटितं च खले त्रिदिनं सकलं स्वरसैः किल चाssसञ्जनितैः ॥ श्वसने कसने शूले ज्वरेऽजीर्णे तथोदरे । सर्पिषा रक्तिकामात्रं चोत्तारो नागवलिका ।
शुद्ध सोमल (संखिया) १ भाग तथा शुद्ध गन्धक, कुटकोका चूर्ण और कत्था २ - २ भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर अदरक के रसमें ३ दिन खरल करके १-१ रत्तीकी गोलियां बनावें ।
इनमें से १-१ गोली घीके साथ देनेसे श्वास, कास, शूल, ज्वर, अजीर्ण और उदररोगोंका नाश होता है ।
(८२१६) सितामण्डूरम् (भै. र. । अम्लपि. )
धमनविधिविशुद्धं गोजले सप्तवारान, तरणिकिरणशुष्कं श्लक्ष्णमण्डूरचूर्णम् । विमलकपलमेकं पञ्चसख्यं सिताया, अनघृतपलाष्टौ द्वयष्टकं गन्धदुग्धम् ॥
यदि इससे चमन हो तो पान खिलाना चाहिये | ( यह विषैला प्रयोग है अतः योग्य चिकित्सक के परामर्शके बिना सेवन न करना चाहिये | मात्रा - आधी रती ठीक है । एक दिन में २ मात्र से अधिक न दें ।)
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मृदुदनशिखाभिर्मन्दमन्दं कटा हे, विगतसलिलशेषं पाचयेत्पाकविज्ञः । वितरति गुडपाके किञ्चिदुष्णेऽवतीर्ण, raft दृढमभीक्ष्णचूर्णितं देयमाशु || त्रिकटुकमधुके छाया सबैडङ्गसारं,
त्रिफलगदलवङ्गं कर्षमेकैकशश्च । तदनु शिशिरकाले द्वे पले माक्षिकस्य, प्रतनुपट निघृष्टं गालितं सम्प्रदद्यात् ॥ शुभ तिथिदिवसादौ भोजनादौ निषेव्यं,
प्रथम दिवसमेनं सार्द्धमाणं तदूर्ध्वम् । अहरहरनुवृद्धया शाणमानं प्रयोज्यं,
हिमकररुचिशीतं गव्यदुग्धञ्च पेयम् ॥ नियतमयमसाध्यानम्ल पित्तोत्थशूलान्,
मिनिवसदाहानाहमोहममेहान् । विविधरुधिररोगान् पित्तयुक्तानशेषानपहरति सिताख्यो दिव्यमण्डूरयोगः ||
उत्तम मण्डूरको अभिमें तपा तपाकर सातबार गोमूत्र में बुझावें और फिर तेज़ धूपमें सुखा कर बारीक चूर्ण कर लें। यह मण्डूर चूर्ण ५ तोले, मिश्री २५ तोले, पुराना घी ८० तोले और गोदुग्ध ८० तोले ले कर सबको एकत्र मिलाकर मन्दान पर पकायें। जब जलांश शुष्क हो जाय तो उसे अभिसे नीचे उतार लें और उसके कुछ उष्ण रहते ही उसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, मुलैठी, इलायची, धमासा, बायबिडंगकी गिरी, हर्र, बहेड़ा, आमला, कूठ और लौंग, – इनका ११ - १| तोला चूर्ण मिला दें । तदनन्तर जब वह ठंडा हो जाय तो कपड़े से छना हुवा २० तोले शहद मिलाकर सुरक्षित रक्खें ।
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