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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः ८११ यह अत्यन्त अग्निदीपक है। | पिप्पली पिप्पलीमूलं युक्तं गुञ्जाद्वयं हितम् । मात्रा–३ रत्ती। हिङ्ग करञ्जबीजं च शुण्ठी लशुनमौषधम् ॥ इसे १९ काली मिरचोंके चूर्ण और घीके एरण्डतैलसम्पिष्टं ककं भक्षयेदनु । साथ सेवन कराना चाहिये, तथा मुख शुद्धि और योगो वैश्वानरो नाम शूलं हन्ति त्रिदोषजम् ॥ दुर्गन्धित डकारोंको रोकनेके लिये ३ ग्रास दही १-१ भाग ताम्र भस्म और काली मिर्च के भात खाना चाहिये । चूर्णको एकत्र मिला कर १-१ दिन बिजौ रे इस पर मध्याह्नमें घी, तक्र और मिश्रीके साथ और अदरकके रसमें खरल करके उसमें २ भाग भात, तथा रातको दूध भात या रोगोचित पथ्य शुद्ध बछनागका चूर्ण और २-२ भाग पीपल तथा देना चाहिये । पीपलामूलका चूर्ण मिलावें और २-२ रत्तीकी ___ अपथ्य----विदाही पदार्थ, सब तरहकी | गोलियां बना लें। दालें. अधिक लवण, तेलमें पकाए हुवे पदार्थ, बेल, इनके सेवनसे त्रिदोषज शूल नष्ट होता है । करेला, बैंगन और कांजी। अनुपान-होंग, करज बीज, सेठ, ल्हसन इसके सेवनसे अग्निमांद्य जनित समस्त विकार और कूठका समान भाग मिश्रित चूर्ण ११ तोला नष्ट होते हैं। ( व्यवहा. मा. ५ रत्ती ) ले कर अण्डोके तेलमें __" लोकनाथ पोटलो' में बतलाए हुवे उप- | पीस कर खाना चाहिये । चार इसके सेवन काल में भी उपयोगी हैं। __(७१३५) बैश्वानररसः (१) इस प्रयोगमें जो कौड़ी ली जायं वे पीली, (र. र. स. । उ. अ. १९ ; र. का. वज़नी, स्निग्ध, स्वच्छ और पीठकी ओर प्रन्थिल | धे. । उदरा.) (गांठों वाली) होनी चाहिये । उत्तम कौड़ीके यही | सिगन्धकताम्राणि शिलाजतुकान्तलौहकम् । लक्षण हैं। त्रिकटुश्चित्रकं कुष्ठं निर्गुण्डी मुसली विषम् ॥ || निष्क (७|| माशे) को कौड़ी उत्तम, | अजमोदा च सर्वेषां द्वौ द्वौ भागौ प्रकल्पयेत् । ५ माशेकी मध्यम, और ३॥ माशेकी कनिष्ठ होती | चूर्णीकृत्य ततः सर्व निम्बक्वाथेन भावयेत् ॥ हैं। इससे हल्की कौड़ी गुणहीन होती है और एकविंशत्प्रकारेण भृङ्गराजेन सप्तधा। . बड़े बड़े कौड़े पित्तवर्धक होते हैं। मधुना गुटिकां शुष्कां रजन्यां तु पदापयेत् ॥ (७१३४) वैश्वानरयोगः वैश्वानराभिधो योगो जलोदरविशोषणः ॥ ( वृ. नि. र. । शूला.) शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, शुद्ध भावितं मातुलिङ्गाम्ले तानं च मरिच दिनम् । शिलाजीत. कान्त लोह भस्म, सेठ, मिर्च, पीपल, आईकस्य रसे चैव विषं तुल्यं च चूर्णयेत् ।। । चीतामूल, कूठ, संभालु, मूसली, शुद्ध बछनाग और For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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