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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] चतुर्थो भागः ७६३ (७०२६) विजयागुटिका (२) । और पोस्तके रसका सर्वथा अभाव है तथा सेवन (र. का. धे. । भगन्दरा.) | विधि कुछ नहीं लिखी। मृतकाद द्वौ विषं गन्धं त्रियेकांशेऽब्दकेशरम। (७०२७) विजयावटिका (१) रेणुकं ग्रन्थिकं वेल्लं सर्वेषां द्विगुणं गुडम् ॥ ( रसे. सा. सं. । ग्रहण्य. ) कोलप्रमाणां वटिकां खादयेत्पातरेव हि । हाटकं रजतं ताम्र यद्यत्र परिदीयते । कासे श्वासे क्षये गुल्मे प्रमेहे विषमज्वरे॥ विजयाख्या तु सा ज्ञेया सर्वरोगनिमूदनी ॥ शोफे पाण्वामये कुष्ठे ग्रहण्य भगन्दरे ।। यदि ग्रहणी कपाट रस प्र. सं. १६०१ में विजया गुटिका ह्येषा रुद्रप्रोक्ताऽधिका गुणैः ॥ | स्वर्ण भस्म, चांदी भस्म और ताम्र भस्म अधिक शुद्ध पारद २ भाग, बछनाग ३ भाग, शुद्ध कर दी जाय तो उसीका नाम "विजया वटिका" गन्धक ३ भाग, तथा नागरमोथा, नागकेसर, | हो जाता है। रेणुका, पीपलामूल और बायबिडंगका चूर्ण १-१ यह वटी हर प्रकारके ग्रहणी रोगको नष्ट भाग ले कर प्रथम पारे गंधककी कजली बनावें करती है । और फिर उसमें अन्य समस्त ओषधियोंका चूर्ण मिला कर खरल करें तथा अन्तमें सबसे २ गुना (७०२८) विजयावटिका (२) (वृहद्) गुड़ मिला कर ५-५ माशेकी गोलियां बना लें। (र. च. । पाण्डु. ; र. र. स. । अ. १९; यो. चि. म. । गुटिका. ३; वै. र. । वातव्या.) इनके सेवनसे खांसी, श्वास, क्षय, गुल्म, पलत्रयं हरीतक्याश्चित्रकस्य पलत्रयम् । प्रमेह, विषमञ्चर, शोथ, पाण्डु, कुष्ठ, संग्रहणी, एलात्वपत्रमुस्तानां भागोऽर्ध पलिको मतः ।। अर्श और भगन्दरका नाश होता है । रेणुकापला प्रोक्ता तदर्धे नागकेसरम् ।। इसे प्रातःकाल सेवन करना चाहिये । व्योषं च पिप्पलीमूलं विषं च पलमात्रकम् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-१ माशा ।) रस: पलः पलो गन्धः सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् । विजयानन्दरसः पुरातने गुडे पक्वे तुलार्धं तद्विनिक्षिपेत् ॥ हिमस्पर्श तु मृदुनीयाघृतेनाक्तकरो बुधः । ( रसे. सा. सं ; र. रा. सु. ; र. चं. । कुष्ठा. ; बदरास्थिप्रमाणेन विजया गुटिका मता ॥ रसे. चि. म. । अ. ९) निशायां खादयेदेनां शोफपाण्डुविनाशिनीम् । प्र. सं. ७०२० विजय भैरव रसः देखिये। टङ्कणं मेघनादं च भक्षयेद्वेगशान्तये ॥ इस रस और विजय भैरव रसके उपादान (ग. नि. परि. गुटिका. ४ में विजय गुटिकातो समान ही हैं परन्तु निर्माण विधिमें थोड़ा | का लगभग यही पाठ है परन्तु उसमें पारद १ अन्तर है इसमें ( विजयानन्दमें ) कटसरैयाके रस | पल है और गन्धकका अभाव है । ) For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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