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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [वकारादि इसके सेवनसे एक दोषज, द्विदोषज और उसे शरावसम्पुटमें बन्द करके लघुपुटमें पकायें सन्निपातज गम्भीर वातरक्त तथा कुष्टका नाश एवं स्वांगशीतल होने पर खरल करके सुरक्षित होता है। रखें । (६९९२) वातराक्षसरसः (१) मात्रा-२ रत्ती । ( यो. र. ; र. रा. सु. । वात रोगा. ; वृ. यो. इसके सेवनसे ऊरुस्तम्भ, वातरक्त, गात्रभङ्ग, त. । ४ त. ९०) आमवात, धनुर्वात, वातजनित शरीर पीड़ा, पक्षामृतं मूतं तथा गन्धं कान्तं चाभ्रकमेव च । घात, कम्पवात, सन्धि वायु, सुप्तिवात, शूल और ताम्रभस्मकृतं सम्यङ्मर्दयित्वा समांशकम् ।। । उन्मादादि समस्त वातज रोगांका नाश होता है। पुनर्नवागुडूच्यग्निसुरसात्र्यूषणंर तथा । ( पाठान्तरके अनुसार इसमें १-१ भाग एतेषां स्वरसेनैव भावयेत्रिदिनं पृथक् ॥ शुद्ध बछनाग और निरुत्थ स्वर्ण भस्म अधिक होनी दत्त्वा लघुपुटं सम्यक्स्वाङ्गशीतं समुद्धरेत् । चाहिये तथा कान्त लोह भस्म पारद योगसे वातराक्षसनामाऽयं वातरोगे प्रयोजयेत् ॥ निर्मित होनी चाहिये ।) तत्तद्रोगानुपानेन द्विगुनामात्रसेवनात् ।। ऊरुस्तम्भे वातरक्ते गात्रभङ्गे तथैव च ॥ (६९९३) वातराक्षसरसः (२) आमवातं धनुर्वातं वेदनावातमेव च ।। ( वृ. यो. त. । त. ९० ) पक्षाघातं कम्पवातं सर्वसन्धिगतं तथा ॥ सूतभस्मकहिलं वङ्गं च गगनं विषम् । सुप्तिवातं च शूलं च उन्मादं च विनाशयेत् ।। तानं टङ्कणकं कान्तं मर्दयेत्रिकटुवैः ।। तत्तद्रोगानुपानेन वाताशीतिविनाशनः ॥ पश्चात्कुमारिकातोयैर्वर्षाभूक्वाथभावितः । पारद भस्म, शुद्ध गन्धक, कान्त लोह भस्म, पक्षाघातं हनुस्तम्भं मन्यास्तम्भं कटिग्रहम् ॥ अभ्रक भस्म और ताम्र भस्म, समान भाग सर्वानाक्षेपकादींश्च वातव्याधींश्च नाशयेत् । ले कर सबको एकत्र मिला कर | वातराक्षसनामाऽयं सर्ववातनिकृन्तनः ।। पुनर्नवा, गिलोय, चीता, तुलसी और त्रिकुटे | पारद भस्म, शुद्ध हिंगुल, वङ्ग भस्म, अभ्रक ( पाठान्तरके अनुसार बासे ) के क्वाथ या स्वरस | भस्म, शुद्ध बछनाग, ताम्र भस्म, सुहागेकी खील की ३-३ भावना दे कर गोला बनावें और और कान्त लोह भस्म समान भाग ले कर सबको x वृ. यो. त. में " सूतेन मारितं कान्तं एकत्र मिला कर त्रिकुटेके काथ, घृतकुमारीके रस शातकुम्भं निरुत्थकं " पाठ अधिक है। और पुनर्नवाके काथकी १-१ भावना दे कर १. विषमिति पाठान्तरम् । सुखा कर सुरक्षित रखें। २. " सुरसा चाटरूपकः" इति पाठभेदः । इसके सेवनसे पक्षाघात, हनुस्तम्भ, मन्या For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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