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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [वकारादि क्षिपन् क्षिपन् वटक्षीरं तत्काष्ठेनैव चालयेत् ।। (नोट-रस तथा अनुपानचूर्णकी मात्रा समुद्धत्य त्र्यहं भाव्यं देवदालीदलद्रवैः॥ बहुत अधिक है । मात्राका निर्णय बल, प्रकृति उष्णकाले तु गुजैकं ताम्बूलपत्रसंयुतम् । आदिका विचार करके करना चाहिये । ) चन्द्रद्धया सदा भक्ष्यं यावत् षोडशगुञ्जकम् ॥ (६९४२) वडवाग्निरसः (१) चूर्णमुत्तरवारुण्या बाकुच्या देवदालिजम् । । (वडवानिमुखरस:) मध्वाज्याभ्यां लिहेत्कर्ष क्रामकं ह्यनुपानकम् ॥ | (भै. र. ; रसे. सा. सं. । स्थौल्या. ; र. र. वर्षमात्राअरां हन्ति जीवेद्वर्षशतत्रयम् । स. । उ. स्था. अ. १८ ; रसें. चि. म. । अ. ९; रसो वटेश्वरो नाम वज्रकायकरो नृणाम् ॥ | यो. र. । मेदो. ; र. र. । स्थौल्या. ; र. चं. ; शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धककी कज्जली धन्व. र. रा. सु. । स्थौल्या. ; वृ. नि. र. । करके उसे ३ दिन बड़के दूधमें खरल करें और | मेदो रोगा.) फिर मिट्टीकी कढ़ाईमें डाल कर बड़की लकड़ियोंमें शुद्धसूतं समं गन्धं तानं तालं समं समम् । ५ पहर तक पकावें । पकाते समय उसमें थोड़ा अर्कक्षीरैर्दिनं मर्य क्षौ र्लेयं द्विगुञ्जकम् ।। थोड़ा बड़का दूध डालते रहना और बड़के गीले वडवाग्निरसो नाम्ना स्थौल्यमाशु नियच्छति ।। (ताज़े) डंडेसे चलाते रहना चाहिये। __तदनन्तर स्वांग शीतल हो जाने पर उसे ३ शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक' तथा ताम्र भस्म दिन बिंडालके पत्तोंके रसमें घोट कर सुरक्षित | और शुद्ध हरताल समान भाग ले कर सबको १ दिन आकके दूधमें घोट कर रक्खें । रेक्खें । इसे उष्ण ऋतुमें १ रत्ती मात्रानुसार पानमें | इसे शहदके साथ सेवन करनेसे स्थूलता शीघ्र रख कर खाना प्रारम्भ करें और नित्य प्रति १-१ | ही नष्ट हो जाती है । रत्ती बढ़ोते रहें । जब १६ रत्ती पर पहुंच जाएं मात्रा-२ रत्ती। तो फिर प्रतिदिन १-१ रत्ती घटाना आरम्भ करें। (६९४३) वडवाग्निरसः (२) इसी प्रकार १ वर्ष तक सेवन करें। (र. र. स.। उ. अ. १६) औषध खानेके पश्चात् इन्द्रायणकी जड़, बाबची और देवदालीका समान भाग मिश्रित चूर्ण टङ्कणं मरिच तुत्यं पृथक् कर्षत्रयं भवेत् । सुन्दरं द्वादशनिष्क त्रिशनिष्कमयोमलम् ।। १। तोलेकी मात्रानुसार शहद और घीमें मिलाकर चूर्णान्येतानि संयोज्य स्थापयेच्छुद्धभाजने । चाटना चाहिये । इसके सेवनसे जरा व्याधिका नाश हो कर शुद्धदेहो नरस्तस्य पानं यद्भोजनोत्तरम् ।। शरीर वज सदृश दृढ़ होता और आयु अत्यन्त १. यो. र. ; र. र. स. में गन्धकके स्थानमें दीर्घ हो जाती है। | बोल (हीरा बोल ) लिखा है। For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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