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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] चूर्णयित्वा ततः क्वाथैर्द्विगुणैस्त्रिफलाभवैः । पचेत्ततश्चार्कदुग्धैर्माण्डूरं जायते परम् ॥ मण्डूरको बहेड़ेकी लकड़ीकी अग्नि में तपा तपाकर सात बार गोमूत्रमें बुझावें और फिर उसे २ गुने (४ गुने) त्रिफलाके काथमें पकावें । जब शुष्क हो जाय तो उसे आकके दूधमें घोटकर (शराव सम्पुट करके गजपुटमें) पकावें । इस प्रकार उत्तम मण्डूर भस्म तैयार हो जाती है । (५४७६) मण्डूरमारणविधिः (५) ( यो. र. ) चतुर्थी भागः अक्षाङ्गारैर्धमेस्किटं लोहजं तद्गवां जलैः । सेचयेदक्षपात्रान्तः सप्तवारं पुनः पुनः ॥ चूर्णयित्वा ततः क्वाथैर्द्विगुणैस्त्रिफलोद्भवैः । आलोय भर्जयेद्वौ मण्डूरं जायते वरम् || मण्डूरं शिशिरं रुच्यं पाण्डूश्वयथु शोषजित् । ratni कामलां च प्लीहानं कुम्भकामलाम् || मण्डूरको बहेड़ेकी लकड़िये की अग्नि में तपा तपा कर सात बार बहेड़े की लकड़ी के पात्र में गोमूत्रमें बुझावें । तत्पश्चात् उसे बारीक करके २ गुने (चार गुने) त्रिफला काथ में पकावें जब शुष्क हो जाय तो खरल करके सुरक्षित रक्खें । (५४७७) मण्डूरयोगः (१) ( र. का. . । पाण्डु. ) मण्डूर शीतल, रुचिकारक तथा पाण्डु, शोथ, शोष, हलीमक, कामला, कुम्भ कामला और प्लीहा - नाशक है । अतिरिक्तं यदाऽशेभ्यो निपतत्यसिपीडनात् । esed रक्तमत्यन्तं लोहकिट्टं तदाऽऽनयेत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५९ गवां मूत्रेण तत्पक्त्वा बहुशः सूक्ष्मचूर्णितम् । अतिसूक्ष्ममिदं तस्य त्रिफला कटुकान्वितम् || किट्टस्यार्धेन संमिश्रय चूर्ण शर्करया युतम् । दीयते त्रिदिनादूर्ध्वं रक्तं तिष्ठति नान्यथा || मुद्गान्नं च मसूरानं दीयते पथ्यभोजनम् । अशसि प्रशमं यान्ति काश्यं चैवातिवेगतः ॥ अत्यन्तं बलमाप्नोति रतिरत्यन्तमुद्यते ॥ शुद्ध मण्डूर को १ दिन गोमूत्र में पका कर अत्यन्त सूक्ष्म चूर्ण करें तदनन्तर ४ भाग यह मण्डूर और १ - १ भाग त्रिफला तथा कुटकीका चूर्ण एवं ६ भाग खांड लेकर सबको एकत्र खरल करें । यदि बवासीर के मस्सों पर किसी प्रकारका दबाव पड़ने से उनसे बहुत अधिक रक्त निकलने लगे तो उपरोक्त चूर्ण खिलाने से वह तीन दिन में अवश्य बन्द हो जाता है । इसके अतिरिक्त यह चूर्ण अर्श और कृशताको भी नष्ट करता है । पथ्य में मूंग और मसूर की दाल देनी चाहिये मात्रा - १ || माशा | ) ( (५४७८) मण्डूरयोग: (२) ( ग. नि. । ग्रन्ध्य.; वृ. मा. । गलगण्ड . ) महिषीमूत्रविमिश्र लोहमलं संस्थितं घटे मासम् । अन्तर्धूमविदग्धं लिह्यान्मधुनाऽथ गलगण्डी || शुद्ध मण्डूर को भैंस ( ८ गुने ) मूत्र में मिलाकर, घड़े में भर कर उसका मुख बन्द करके रख दें तथा १ मास पश्चात् उसे इस प्रकार भस्म करें कि धुवां बाहर न निकले । For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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