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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [४७८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि जलावें । ऊपर वाली हाण्डीके पानीको बारबार बद- । चला जायगा । इसीका नाम “ तिर्यकपातन लकर उसकी तलीको ठंडा रखना चाहिये। | संस्कार" है। इस क्रियासे (३ पहरमें ) पारद उड़कर नोट---पातनके जो तीन भेद-अधः पातन, ऊपर जा लगेगा । हाण्डीके स्वांग शीतल होने पर | ऊर्द पातन और तिर्यकपातन लिखे गये हैं वे उसे सावधानी पूर्वक निकाल लेना चाहिये । तीनों आवश्यक हैं । एक एक विधिके जो कई पारदोर्द्वपातनम् (आ) कई प्रकार लिखे गये हैं उनमें से कोई एक किया ( भा. प्र. । खं. १ ) जा सकता है। मयूरग्रीवताप्याभ्यां नष्टपिष्टीकृतस्य च । (६) रोधनसंस्कारः यन्त्र विद्याधरे कुर्याद्रसेन्द्रस्योर्द्धपातनम् ॥ (र. सा. सं. । पूर्वखण्ड; र. रा. सु. । पूर्वखण्ड) पारद में नीला थोथा और स्वर्णमाक्षिकका | एवं कथितः सूतः षण्ढत्वमधिगच्छति । चूर्ण मिलाकर उसे घी कुमार (ग्वारपाठे ) के, तन्मुक्तयेऽस्य क्रियते बोधनं कथ्यते हि तत् ॥ रस के साथ इतना घोटें कि पारद दिखलाई न | विश्वामित्रकपाले वा काचकूप्यामथापि वा। सूते जलं विनिक्षिप्य तत्र तन्मज्जनावधि ॥ दे और सबकी पिट्टी सी हो जाय । इसे डमरु | पूरयेत्रिदिनं भूम्यां गजहस्तपमाणतः । यन्त्रमें रखकर उड़ा लेना चाहिये । | अनेन सूतराजोयं षण्ढभावं विमुञ्चति ॥ (३) पारदस्य तिर्यकपातनसंस्कारः पूर्वोक्त संस्कारोंसे पारदमें षण्ढत्व आ जाता ( र. सा. सं. । पूर्वखण्ड; र. चि. म. । अ. ३; है उसे नष्ट करने के लिये यह रोधन संस्कार ___र. रा. सु. । पूर्वखण्ड.) | करना चाहिये। घटे रसं विनिक्षिप्य सजलं घटमन्यकम् ।। नारयल या काचकी शीशीमें पारेको डालकर तिर्यमुखं द्वयोः कृत्वा तन्मुखं रोषयेत्सुधीः॥ उसमें इतना पानी डालें कि जिससे पारद डूब रसाधो ज्वालयेदमिं यावत्सूतो जलं विशेत । जाय । तत्पश्चात् उसका मुख अच्छी तरह बन्द तिर्यक् पातनमित्युक्तं सिद्धर्नागार्जुनादिभिः ॥ करके उसे डेढ़ हाथ नीचे भूमिमें गाढ़ दें और एक घड़ेमें पारा डालें और दूसरे उतने ही | ३ दिन पश्चात् निकाल लें। इससे पारेका नपुंस्कबड़े घड़ेमें पानी भर दें। तदनन्तर दोनांके मुखां| त्व दोष दूर हो जाता है। को तिरछा मिलाकर सन्धिको गुड़ चूने आदिसे | (७) नियमनसंस्कारः (अ) अच्छी तरह बन्द कर दें, और फिर पारद वाले (र. रा. सु । पूर्वखण्ड) घड़े के नीचे आग जलावें । उत्तराशाभवः स्थूलो रक्तसैन्धवलोष्टकः । इस विधिसे पारा उड़कर पानी वाले घड़े में तद्गर्भे रन्धकं कृत्वा सूतं तत्र विनिक्षिपेत् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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