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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपामकरणम् ] हतीयो भागः। [२७३] - फालसा, हर्र, बहेड़ा, आमला, देवदारु, (३७९३) परूषकादिहिमः कायफल, लाल चन्दन, पाक और कुटकी । | (ग. नि. । ज्वरा.) प्रत्येक ओषधि १। तोला लेकर सबको अधकुटा | परूषकमधुकानि काश्मर्यामलकानि च । बलाखर्जूरमृद्वीकाशीतपाकीनिदिग्धिकाः॥ इनका शीत कषाय सेवन करने से पित्त- मधूक प्रपौण्डरीकं चन्दनोशीरपद्मकम् । प्रधान समिपात नष्ट होता है । एतान्यापोथ्य तुल्यानि वासयेदुत्तमोदके ॥ (३७९१) परूषकादिगणः शर्करामधुसंयुक्तं प्रातरुत्थाय पाययेत् । (सु. सं. । सू. अ. ३८; वा. भ. । सू. अ. १५) तेनास्य पित्तंसम्भूतो ज्वरः शिमं प्रणश्यति ॥ परुषकद्राक्षाकटफलदाडिमराजादनकतक फालसा, महुवा, खम्भारी, आमला, खरैटी, फलशाकफलानि त्रिफला चेति । खजूर, मुनक्का, काकोली, कटेली, मुलैटी, पुण्डरिया, परूषकादिरित्येष गणो वातविनाशनः । लाल चन्दन, खस और पद्माक । सबको कूटकर रातको स्वच्छ जलमें भिगो दें और प्रातःकाल मूत्रदोपहरो हपः पिपासानो रुचिपदः ।। मल छान कर उसमें मिश्री और शहद मिलाकर फालसा, मुनक्का, कायफल, अनार, खिरनी, | सेवन करें। यह काथ पित्तज्वरको शीघ्र नष्ट निर्मलोके फल, सागोनके फल और त्रिफला। करता है। इन ओषधियोंके समूहको “परूषकादि (३७९४) पर्पटादिकाथः (१) गण" कहते हैं । यह गण वातनाशक, मूत्र- ( च. द.; वृ. नि. र. । वर.; वं. से.; यो. र. । दोषनाशक,हृथ,पिपासानाशक और रुचिवर्द्धक है । छर्दि.; वै. जी. । वि. १) (३७९२) परूषकादियोगः एक एव खलु पैत्तिकज्वरं हन्ति पर्पटकृतः कपायकः । (ग. नि. । छZ.) चन्दनोदकमहौषधान्वितंपरूषकाणि मृद्वीकां मधुकं शर्करां बलाम् । श्वेत्तदा किमु पुनर्विचारणा ।। मधूकपुष्पं पदं च मुस्तामलकानि च ॥ पित्तज्वर को नष्ट करनेके लिये केवल पित्तआपोथ्य तानि सर्वाणि प्रक्षिपेत्तण्डुलोदके। पापड़ेका काथ ही पर्याप्त है, यदि उसके साथ चन्दन, शर्कराक्षौद्रसंयुक्तं पिबेच्छर्दिषापहम् ॥ सुगन्धबाला और सोंठ भी मिला दी जाय तब तो फालसा, मुनक्का, मुलैठी, मिश्री, खरैटी, मह- कहना ही क्या है। के फूल, कमल, नागरमोथा और आमला । सब (३७९५) पर्पटादिकाथ(२) चीज़ोको पीसकर चावलोंके पानीमें मिलावें और (वृ. नि. र. । ज्य.; शा. सं. : म. ख. अ. २ उसमें मिश्री तथा शहद मिलाकर सेवन करावें । पपेटो वासकस्तिता किरात यन्वयासकः । इसके सेवनसे छर्दि और तृषा नष्ट होती है। प्रियङ्गश्च कृतः काय एष शर्करमा पुनः ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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