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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] कांस्यं लघु च तिक्तोष्णं लेखनं दृक्प्रसादनम् । कृमिकुष्ठहरं वातपित्तनं दीपनं हितम् ॥ घृतमेकं बिना चान्यत्सर्वं कांस्यगतं नृणाम् । * भुक्तमारोग्यसुखदं हितं सात्म्यकरं तथा । iti मूत्रे वापितं परिशुध्यति । म्रियते गन्धतालाभ्यां निरुत्थं पञ्चभिः पुटैः || आठ भाग ताम्र और २ भाग खुरक बंग को एकत्र गलाने से कांसी बनती है । सौराष्ट्र देशकी कांस श्रेष्ठ होती है । मृदु, जिस कांसी में तीक्ष्ण शब्द निकले, जो स्निग्ध, जरा श्यामता लिए हुवे सफेद और स्वच्छ हौ तथा तपाने से लाल हो जाती हो वह उत्तम होती है । परिशिष्ट जिसका रंग पीला हो, जो तपाने से ताम्रके रंगकी हो जाए, खरखरी और रूक्ष हो तथा चोट न सह सके एवं घिसने से जिसमें चमक पैदा हो वह अच्छी नहीं होती। ( मूलमें “ सप्तधाकांस्यमुत्सृजेत् " लिखा है परन्तु दोष ६ ही बतलाए हैं ।) कांसी लघु, तिक्त, उष्ण, लेखन, दृष्टिको स्वच्छ करने वाली, कृमिकुष्ठ नाशक, वातपित्त नाशक र अग्निदीपक है । * शुद्ध कांस्यमये पात्रे सर्वमेव हि भोजनम् । पथ्यं सञ्जायते नाग्लं घृतशाकादि वर्जितम् ॥ (र. प्र. सु. अ. ४ ) शुद्ध कांसीके पात्र में अम्ल पदार्थ, घी और शाकादिके अतिरिक्त सभी पदार्थ रखकर भोजन करना हितकर है। भोजन रखना हितकर है | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कांसीके पात्र में घृतके अतिरिक्त हर प्रकारका ६१३ कांसीको तपा तपाकर गोमूत्र में बुझानेसे वह शुद्ध हो जाती है । कांसीके पत्रों पर गंधक और हरतालका ( नीबू के रस में घोटकर ) लेप करके यथाविधि शरावसम्पुट में बन्द करके गज पुट दें। इसी प्रकार ५ पुट देने से निरुत्थ भस्म हो जाती है । (९५१०) किन्नरकण्ठरसः (र. चं. । स्वरभेदा. ) I रसं गन्धकमभ्रं च माक्षिकं लोहमेव च । कर्षप्रमाणं संगृह्य वैक्रान्तं रसपादिकम् ।। amrat तथा हेम रौप्यं हेमचतुर्गुणम् । वासायाश्च तथा भाय वृहत्या वाऽऽर्द्रकस्य च स्वरसेन सरस्वत्या भावयित्वा पृथक् पृथक् । रक्तद्र्यमिता कुर्याद्वयश्छाया प्रशोषिताः ॥ स्वरभेदानशेषांश्च कासान् श्वासांश्च दारुणान निखिलान् कफजान् व्याधीन् वातश्लेष्मसमुद्भवान् ॥ इन्यात्किन्नरकण्ठाख्यो रसोऽसौ रुद्रनिर्मितः किन्नरस्येव कण्ठस्थ स्वरोऽस्य प्राशनाद्भवेत् ॥ योगवाहिर चाप योजयन्ति भिषग्वराः । सशर्करं शुण्ठिचूर्ण क्षौद्रेण सह योजितम् ॥ कोकिलस्वर एव स्याद् गुटिकां भुक्तमात्रतः ॥ For Private And Personal Use Only शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म, स्वर्णमाक्षिक भस्म और लोहभस्म १ - १ तोला; बैकान्त भस्म ३ माशा, स्वर्ण भस्म १ ॥ माशा और रौप्य भस्म ६ माशा लेकर सबको एकत्र मिलाकर खरल
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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