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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ अकारादि अर्श, शोथ, अश्मरि, उपदंश अग्निमांद्य वातव्याधि, (८९२३) अग्निकुमाररसः (४) शूल, अपस्मार, सन्निपात और कफ का नाश (र. का. धे. । सन्निपाता.) होता है। भस्ममूतकभागैकं मृतं शुल्वं तथैव च । अपथ्य- क्षार और अम्ल पदार्थ । विषं चैतत्सम ग्राह्यं गन्धकं द्विगुणं कुरु ।। (८९२२) अग्निकुमाररसः (२) त्रिकटु त्रिफलायुक्तं सर्वमेकत्र मर्दयेत् । | निर्गुण्डी चाग्निदमनी वहिव्याघ्रीद्वयं तथा ।। (र. का. धे. । ग्रहण्य.) | पातालतुम्बिकी ग्राह्या इन्द्रवारुणिमेव च । दशनिष्कं शुद्धसूतं शुद्धगन्धं च तत्समम् । एतेषां स्वरसेनैव भावना त्वेकविंशतिः ।। . सार्धनिष्कं च विश्वं स्याद्धंसपाया द्रवर्दिनम् ॥ रसो ह्यग्निकुमारोऽयं प्रत्यक्षश्च महेश्वरः । हस्तिशुण्ड या द्रवैर्वाऽथ मर्दितं वटकीकृतम् । सन्निपाते त्रिदोषे च यमालयगतेऽपि वा ॥ काचकुप्यां विनिक्षिप्य मृदः संलेपयेदहिः ॥ मूच्यग्रेण प्रदातव्यो मृतो जीवति तत्क्षणात् ।। शुष्का तो वालुकायन्त्र क्रमदाग्निना पचेत् । पारद भस्म, ताम्र भस्म और शुद्ध वछनाग षड्यामान्ते समुदत्य साधनिष्कविषण च॥ १-१भाग तथा शुद्ध गंधक, त्रिकुटा और त्रिका सह सञ्चूर्णयेच्छ्ल क्ष्णं रसो ह्यग्निकुमारकः।। २-२ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके संभाख, गुजैकं पर्णखण्डेन दातव्यं सन्निपातजित् ॥ अग्निदमनी, चीता, छोटी कटेली, बड़ी कटेली, पाताल कासवासक्षयं पाण्डं मन्दानि च विनाशयेत् ।। तुम्बी और इन्द्रायण के स्वरसकी २१ ( प्रत्येक शुद्ध पारद १० निष्क, शुद्ध गंधक १० की ३ ) भावना दें। निष्क, और सोंठका चूर्ण १॥ निष्क (७|| माशे ) यह रस स्वयं महेश्वर स्वरूप है । इसे सुईकी लेकर सबको एकत्र खरल करके हंसपादीके स्वरस नोकपर लगाकर प्रयुक्त करने से यमालयके निकट या हाथीसुंडीके स्वरसमें १ दिन खरल करके पहुंचा हुवा सन्निपात रोगी भी स्वस्थ हो जाता है। गोलियां बना लें और उन्हें सुखाकर कपडमिट्टी (शिरपर---तालु प्रदेशमें-छुर से ज़रा खुरच की हुई आतशी शीशीमें भरकर ६ पहर बालुका कर यह रस मल देना चाहिये । ) यन्त्रमें मृदु मध्यम और तीब्राग्नि पर पकावें ।। कर तदनन्तर शीशी के स्वांग शीतल होने पर उसमें (८९२४) अग्निकुमाररसः (४) से औषध को निकालकर उसमें १॥ निष्क शुद्ध (र. सं. क. । उ. ४) वछनागका चूर्ण मिलाकर बारीक पीसकर रक्खें। शुत गन्धं विपं शकं कपर्द टङ्कणोषणे । इसमें से १ रत्ती रस पानमें रखकर खानेसे चन्द्रकाग्निगजत्रिद्विवमुभागैर्मितं क्रमात् ॥ सन्निपात ज्वर, कास, श्वास, क्षय, पाण्डु और जम्बीरकेण सम्मघे भवेदग्निकुमारकः । अग्रिमांध का नाश होता है। वाते मन्दानलेऽजीणे ज्वरश्लेष्मविषूचिके ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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