SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२० भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ अकारादि (८८७८) अभयादिलेपः (८८८१) अर्कक्षारलेपः (यो. र. । व्रणा.) (वै. र.। अर्शो.) अभयात्रितादन्तीलाङ्गलीमधुसैन्धवैः । पञ्चाङ्गमार्कमनले विधिवद्विदग्धं सुषवीपत्रधत्तरकर्णमोटकुठेरिकाः ॥ क्षारं प्रकल्पित बुधैः सममस्य योज्यम् । पृथगेते प्रलेपेन गम्भीरत्रणशोधनाः ॥ सिन्दुरमुत्तममिदं द्वि शिखण्डयुक्तं ___हर, निसोत, दन्तीमूल, लांगली (कलियारी) लेप्यं निघN गुदजानिसुखपरेण ॥ तेषामुपर्युपरि भक्तदधि प्रलिम्पेकी जड़, सेंधा नमक; शहद, फरेलेके पत्ते, धतू दुबाटयेद्गतवति त्रितये दिनानाम् । रके पत्ते, बबूल के पत्ते और तुलसी; इनमेंसे प्रत्येकका लेप गहरे घावोंको शुद्ध कर देता है। एवं पतन्ति गुदजान्यचिरेण नूनं ___ दृष्टं मया बहुश एतदनन्यथास्ति । (८८७९) अमृतादिलेपः आकके पञ्चांगको जलाकर इसका क्षार निकालें (वै. म. र. । पटल ११) यह क्षार, सिन्दूर और नीलाथोथा समान भाग शीतपित्तेऽमृताराजी कल्कं चाभ्यङ्गलेपनम् ॥ लेफर तीनोंको (पानीके साथ ) बारीक पीसलें और गिलोय और बाबची ( या राई) को पीसकर | फिर अर्शके मस्सोंको मिट्टीके ठीकरेसे रगड़ कर उन लेप करने और मलनेसे शीतपित्त नष्ट हो पर यह लेप लगादें तथा ऊपरसे दही भात बांध जाता है। दें। इसे तीन दिन पश्चात् खोलें । इस लेपसे अर्शके मस्से अवश्य गिर जाते (८८८०) अरिष्टकादिलेपः । हैं। यह प्रयोग अनेक बारका अनुभूत है, कभी (न. मृ. । त. ६) निष्फल नहीं जाता। त्वचामरिष्टकभवामाकारकरभं तथा । (८८८२) अर्कक्षारादियोगः तीक्ष्णे मधे मर्दयित्वा शिश्ने नित्यं प्रलेपयेत् ॥ (वै. म. र. । पटल ११) ताम्बूलं वेष्टयेत्पश्चादिशैकदिवसानयम्। भास्करकाण्डक्षारं स्वरसेनेक्ष्वाकुजेन संलिप्तम् । योगोऽयोनिरतोद्भूतपण्डत्वस्थ विलोपकः॥ हन्यात्कपालकुठं कौवं गिरिं तारकारिरिव ॥ रीठेका छिलका और अकरकरा बराबर बराबर आकके क्षारको कड़वी तूंबीके स्वरसमें पीसलेकर दोनोंको तीक्ष्ण मद्यमें पीसकर शिश्न पर लेप कर लेप करनेसे कपाल कुष्ट नष्ट हो जाता है। करें और ऊपरसे पान बांध दें। (८८८३) अर्कक्षीरादिलेपः (१) इसी प्रकार २१ दिन लेप करनेसे अयोनि- । (रा. मा. । अधिका. ५) मैथुन (गुद व्यभिचारादि) जनित नपुंस्कता नष्ट | अक्षीरजपापुष्पतैललाक्षारसैः समैः । हो जाती है। कण्ठमाला शमं याति प्रलिप्ता सप्तभिर्दिनैः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy