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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] परिशिष्ट ४१७ (८८६६) अश्वगन्धादितैलम् खामकजडत्वे च तिमिरे च तथाऽर्बुदे ॥ ( भा. प्र. । म. खं. २ शूकदोषा. ; पक्षाघाते तथाऽऽयामे च्युतभग्नास्थिसन्धिषु । च. द. । वृष्या. ६६) विधेयं पृष्ठभग्नेषु हनुमन्याग्रहे तथा ॥ अश्वगन्धा वरी कुष्ठं मांसी सिंहीफलान्वितम् ।। स्तम्भकम्पेषु शोफेषु रुजासु विविधामु च । चतुर्गुणेन दुग्धेन तिलतैलं विपाचयेत् ॥ ज्वरे व विषमे गुल्मे तथा मारुतशोणिते ॥ | प्लीहि प्लीहोदरे चैव विद्रधिगृध्रसीषु च । तत्तल मेद्वक्षोजकर्णपालिविवर्द्धनम् ॥ __कल्क-असगन्ध, शतावर, कूठ, जटामांसी | क्षीणेन्द्रिया नष्टशुका ये चान्ये षण्डका नराः॥ और कटेलीके फल ४-४ तोले लेकर पानीके साथ भूतोपहतचित्ताश्च शस्यते तेषु नित्यशः । पीस लें। व्यापत्रयोनी बन्ध्यामु पाययेत तदा भिषक् ॥ २ सेर तिलके तेल में यह कल्क और ८ सेर पुत्रदं परमं प्रोक्तं धन्वन्तरिवचो यथा। क्वाथ-६। सेर असगन्धको कूटकर ६४ दूध मिलाकर पकावें। इसकी मालिशसे शिश्न, स्तन और कर्णपाली सेर पानीमें पकायें और ८ सेर रहने पर छान लें । ___ कल्क-तगर, सोया, नागरमोथा, नखी, की वृद्धि होती है। दालचीनी, मुलैठी, सोंठ, पृष्ठपर्णी, खरैटीकी जड़, (८८६७) अश्वगन्धाद्यं तैलम् शालपर्णी, रास्ना, पोखरमूल, अजवायन, पुनर्नवा (ग. नि. । तैला.) (बिसखपरे) की जड़, मजीठ, खस, तेजपात, मूलानि चाश्वगन्धायाः शतं स्यात्स्वण्डशः कृतम् । द्रवन्ती, तुलसी, बच, गोखरु, कमलनाल, हरै द्विद्रोणेऽपां पचेत्काथमष्टभागावशेषितम् ॥ और शतावर; सबका २॥-२॥ तोले चूर्ण लेकर तैलाढकं समावाप्य क्षीरं दद्याच्चतुर्गुणम् । पानीके साथ पीस लें। एतत्समालोडय पचेकल्लांश्चमान् समावपेत् ॥ ८ सेर तैलमें उपरोक्त क्वाथ, कल्क और तगरं शतपुष्पां च मुस्तं व्याघ्रनखं त्वचम् । । ३२ सेर दूध मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब मधुकं शृङ्गवेरं च पृश्निपर्णी बलां स्थिराम् ॥ | पानी जल जाए तो तेलको छान लें। रास्नां पुष्करमूलं च भूतीकं सपुनर्नवम्। इसे बस्ति और नस्य कर्मद्वारा प्रयुक्त करना, मञ्जिष्टां नलदं पत्रं द्रवन्ती सुरसां वचाम् ॥ भोजनके साथ देना और पिलाना चाहिये । तथा श्चदंष्ट्रां च मृणालं च वयस्थां बहुपुत्रिकाम।। इसकी मालिश भी करनी चाहिये। लक्ष्णपिष्टापलिकान् दया गर्भ विपाचयेत् ।। यह तैल खन्नता, मूकता, जड़ता, तिमिर, तत्सिद्धमविदग्धं च ततः समवतारयेत् । अर्बुद, पक्षाघात, आयाग, अस्थिच्युत होना, अस्थि बस्ती पाने तथाऽभ्यङ्गे नस्यकर्मणि भोजने ॥ भंग, संधि भंग, पृष्टभन्न, हनुग्रह, मन्याग्रह, शरीरस्तम्भ, यत्र यत्र विधातव्यं तन्मे निगदतः शृणु। शरीर कम्प, शोथ, अनेक प्रकारकी पीड़ा, विषम ज्वर, For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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