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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [अकारादि - अथाकारादिकषायप्रकरणम् (८७७८) अग्निमन्थकषायः (८७८१) अकोटादिकाथः (ग. नि. । प्रमेहा. ३०) (व. से. । ग्रहण्य. बालगे.) भग्निमन्थकषायं तु वसामेहे प्रयोजयेत् ॥ अङ्कोटमूलं धातक्यो बिल्वपेशी महौषधम् । क्वयितं शीतलं पेयं कुक्षिरोगहरं परम् ॥ अरनीका क्वाथ बसामेहको नष्ट करता है। __अंकोटकी जड, धायके फूल, बेलगिरी और (८७७९) अङ्कोटमूलयोगः (१) सोंट समान भाग लेकर क्वाथ बनाकर ठंडा करके ___(व. से. । विषा.) पीनेसे पेटके विकार ( अतिसार, ग्रहणी आदि) नष्ट होते हैं। अङ्कोटोत्तरमूलोत्थं कषायस्य पलद्वयम् । (८७८२) अजगन्धादियोगः सर्पिपश्च पलं पीतमळविषनाशनम् ॥ (यो. चि. म. | अ. ७)। ___ अंकोटको जड़की छालके १० तोले क्वाथमें | पलार्द्धमजगन्धाया अष्टयामोषितं जले । ५ तोले घी मिलाकर पीनेसे पागल कुत्तेका विष | वर्तयित्वा पिबेत्मावईन्ति दाहं सवातकम् ।। नष्ट होता है। ___ २॥ तोले अजमोदको पानीमें भिगोदे और (८७८०) अङ्कोटमूलयोगः (२) आठ पहर (२४ घंटे) बाद छानकर पीलें । यह (व. से. । विषा.) पानी दाह और वायुको नष्ट करता है । अङ्कोटमूलं नि:क्वाथ्य सफाणितघृतं लिहेत । (८७८३-८४) अतिबलादिकाथः तैलाक्तः स्विन्नसर्वाङ्गो गरदोषविषापहम् ।। (व. से. । मूत्रकृच्छ्रा .) ___ शरीर पर तेलकी मालिश करके स्वेदित कर कषायोऽतिबलामूलसाधितोऽशेषकच्छूजित् । पीतश्च त्रपुसीबोज सतिलाज्यं पयोन्वितम् ।। नेके पश्चात् अंकोटकी जड़के क्वाथमें फाणित ____ अतिबला (खरैटी) की जड़ का क्वाथ हर (राब) और घी मिलाकर चाटनेसे गर विष नष्ट हो तरहके मूत्रकृच्छूको नष्ट करता है। ___खी रके बीज और तिलोंको पीसकर उसमें क्वाथको पुनः पकाकर चाटने योग्य गाढ़ा घी और दूध मिलाकर पीनेसे भी मूत्रकृच्छू नष्ट कर लेना चाहिये। ' होता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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