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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१२) भारत-भैषज्य रत्नाकर शुद्धं नागं तथा वङ्ग ग्रहणीयं च शुल्बकम्।।। इसे १ माशे से २ माशे तक या न्यूनाधिक शुद्धं पित्तलमप्येवं शद्धं कान्तं पलं पलम। मात्रानुसार नीचे लिखे अनुपान के साथ सेवन करावें। चूर्णितं शुद्धलोहं च तारं ताप्यं पलं पलम्।। | एवं पथ्य पालन करावें। एकीकृत्य च तत्सर्वं खल्वे मृष्ट्वाऽथ भाव्यते। ___ अनुपान-खैर, असन और रोहितक (रुहेड़ा) की विषस्यापि पलं देयं भाव्यते त्रिफलाम्भसा।। छाल को बकरी के मूत्र में पकाकर क्वाथ तैयार करें। पुनश्च भृङ्गराजस्य राजवृक्षस्य भावना। इस के साथ उपरोक्त रस सेवन करावें और धूप में बीजकस्य रसैः पश्चात्खदिरक्वाथमर्दनम्।। बैठाकर मरिचाद्य तेल की मालिश करावें। महानिम्बस्य निम्बस्य क्याथैरेतद्विभाव्यते। ___इसके सेवन से इधर उधर जाने वाले पीप, समस्त शरीर की सूजन, साध्य, असाध्य, शास्त्रज्ञ वैद्यों से अर्कसेहण्डदग्धस्य भावना पञ्च पञ्च च।। | त्यक्त और पर्व कर्मों के दोष से उत्पन्न कष्ठ भी शीघ्र ही दातव्याः शोषयेन्मषे क्षिप्त्वाऽप्यन्धे पुटो | नष्ट हो जाता है। महान्। इसके सेवन से पथ्य पालन करना चाहिए और देयः पश्चाद्ग्रहीतव्यं तच्च रूपेण सुप्रभम्।। सदैव योगियों और गुरुजनों की पूजा तथा तर्पण करना चाहिये। दीयन्ते माषमेकं तन्न्यूनं वापि विचार्य च। पुनर्माषद्वयं दद्यादनुपानेन संयुतम्।। खदिरासनरोहीतक्वाथं कर्यात्सपाचितम्। (१०३०) कुष्ठशैलेन्द्रो रसः छागमूत्रेण संपक्वमनुपानं शुभावहम्।। (लोहः) (र० र०। कष्ठ०) मण्डलानां प्रणाशाय पूर्वोक्तं लिप्यते तथा। तालकं मरिचं कुष्ठं काचटङ्कनिशा वचा। मरिचाद्यं दिनं धर्मे स्थातव्यं तैलसेवनम्।। निर्गण्डी निम्बकरलाबीजं वा दलमेव वा।। तथ्ये पथ्येपि वर्तेत शिवभक्तिपरायणः। प्रत्येकं तोलकं चूर्णं चूर्णतुल्यन्तु गुग्गलः। उत्पथं गतपूयस्य भवेदुच्चाटनं ध्रुवम्।। बाकुच्या पलिकं ग्राह्यं पलं सूतं च गन्धकम्।। 'श्वयथः सर्वदेहस्य शीघ्रमेव विनश्यति। लोहस्य द्विपलं चात्र त्रिफलाजलशोधितम्। सप्तधातुगतं वापि साध्यासाध्यं तथैव च।। षण्मासा वटिका कार्या गोमूत्रेण निषेविता।। वैद्यवन्दैः परित्यक्तं त्यक्तं शास्त्रपरैरपि। कुष्ठशैलेन्द्रवज्राख्यो लोहोऽयममृतोपमः। तत्कुष्ठं पूर्वकर्मोत्थं शीघ्रमेतद्विनाशयेत्।। अष्टादशानि कुष्ठानि कण्डूदद्रुसकुष्ठकम्।। परं पथ्यविधि कुर्याद्यथाप्रोक्तं तथा सदा। विद्रधि गण्डमालाञ्च गर्दभामुपगर्दभाम्। योगिनां सततं पूजां कुर्यात्तेषां च तर्पणम्।। | प्लीहगुल्मोदरान्हन्ति कासं श्वासं गुरुतां महतां पूजां कुर्याच्च कामिताशनम्। हलीमकम्।। कुष्ठरुद्रेश्वरो नाम रसोऽयं भुवि दुर्लभः।। कामलापाण्डुरोगांश्च श्वयधुश्चामवातजम्। चन्द्रनाथमुखाच् छ्रुत्वा गहनानन्दभाषितः।। प्रथम २-२ पल पारा और गन्धक लेकर कज्जली एष लोहरसो दिव्यो मेधायुर्बलदायकः। करें फिर उसमें सीसा, भस्म, बंग भस्म, तांबा भस्म, पीतल भस्म, कान्त लोह भस्म, लोह भस्म, चांदी | कालदेशवयोवनीन्दृष्ट्वा वा त्रुटिवर्द्धनम्।। भस्म, सोनामक्खी भस्म और मीठा तेलिया १-१ पल अनुपानं प्रकर्त्तव्यं वातिके विश्वकुण्डली। मिलाकर घोटें फिर उसे त्रिफला भांगरा, अमलतास, पटोलमुद्गैःपित्ते च पर्पटेनापि वारिणा।। बिजौरा, खैर, महानीम और नीम के रस तथा आक | अङ्कोठदलनीरेण चक्रमईरसैःकफे। और सेंड के दूध की पृथक् पृथक् ५-५ भावना देकर केवले वातिके पैते गोमूत्रं परिवर्जयेत्।। सुखाकर अन्ध मूषा में बन्द करके महापुट दें। मूत्रस्थाने प्रकर्तव्यं छागीदग्धं न संशयः।। For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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