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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२६६) भारत-भेषग्य-रत्नाकर - - धीकुमारी का स्वरस २ सेर, धतूरे का स्वरस : अभ्यंग (मर्दन) बस्ति और उत्तरबस्ति द्वारा प्रयोग २ सेर, भांगरे का स्वरस , सेर, दूध ८ सेर, तेल करने से शर्करा, पथरी, भयंकर मूत्रकृच्छ्र, प्रदर, २ सेर । योनिशूल, शुक्रदोष, और बन्ध्यत्व (वांझपने) का __ कल्क द्रव्य-मुल्हैठी, सुगन्धबाला, मजीठ, नाश होता है। नागरमोथा, नखी, कपूर, भांगरा, इलायची, जीवन्ती, [८७६] कुष्ठकालानलतैलम् (भै.र. कुठे) पनाक, कूठ, काला भांगरा, बासा, तालीस पत्र, सूतं गन्धं शिलातालं काञ्जिकर्मईयेद्दिनम् । राल, तेजपात, बायबिडंग, सोया, असगन्ध, तल्लिप्तवस्त्रवति तां तैलाक्तां ज्वालयेदधः ॥ अरण्ड, अशोककी छाल और नारयल प्रत्येक स्थिते पात्रे पतेतैलं गृहीत्वा लेपये ततः । ११-१। तोला । यथाविधि तेल पका कर छानकर उत्तम कुष्ठस्थानं विशेषेण सर्वकुष्ठं हरत्यलम् ।। धूपित बर्तन में भरकर सुरक्षित रक्खें फिर तीन इदं कालानलं तैलं वातकुष्ठे महौषधम् ॥ दिन पश्चात् निकाल कर सेवन करावें । एषां समं काञ्जिकं, सर्वेषां द्विगुणं तिलतलम्, इस तेल की मालिश करने और शिरमें | कल्कं वस्त्रे संलिप्य संशोग्य वर्ति कुर्यात्, तां डालने से अर्दित, मन्यास्तम्भ, शिरोरोग, ताल, तैलाक्तां संदशिकायां ज्वालयित्वा उपरि तेलं मासा और अक्षिपात, शोष, मूर्छा, हलीमक, दत्वा पतितं तैलमधः पात्रे गृह्णीयात् । कुष्ठहनुग्रह, बधिरता और कानों की वेदना नष्ट स्थाने दद्यात्सिद्धफलः प्रयोगः होती है। पारा, गन्धक, मनसिल और हरताल को १ [८७५] कुशाचं तैलम् (भा. प्र. । अश्म.) दिन कांजी में घोटकर कपड़े पर लपेट कर बत्ती बनार्वे फिर उस बत्ती को तेलमें भिगोकर (उलटा कुशामिमन्यशैरेयनलदर्भक्षुगोक्षुराः। लटका कर) जलावें और उसके नीचेबरतन रख दें। कापोतपावसुकवशीरेन्दीवरीशराः इस प्रकार बत्ती के जलने से बरतन में जो तेल घातक्यरलुबन्दाकाः कर्णपूराश्मभेदकाः। गिरे उसे शीशी में भरकर रक्खें । एषां करककषायाभ्यां सिद्ध तेल प्रयोजयेत् ॥ इसकी मालिश से कुष्ठ का नाश होता है। पानाभ्यञ्जनयोगेन बस्तिनोत्तरबस्तिना। यह वातज कुष्ठ के लिये महौषध है। शर्कराश्मरीरोगेषु मूत्रकृछ्रे च दारुणे ॥ इस प्रयोग में कांजी सब चीजों के बराबर प्रदरे योनिशूले च शुक्रदोषे तथैव च। लेनी चाहिये । बत्ती को सुखाकर दो गुने तिलके बंध्यागमेप्रदं प्रोक्तं तैलमेतत्कुशादिकम् ॥ तैल में भिगोना चाहिए। बत्ती भीगने के बाद कुश, अरनी, पियाबांसा, नल, दाब, ईख, जो तेल बचा रहे उसे जलती हुई बत्ती के ऊपर गोखरू, ग्रामी, लाल आक, हुलहुल, शतावर, शर, डालते रहना चाहिए । धायके फूल, अरल, बन्दा, कदम्ब (या अशोक) [८७७] कुष्ठतैलम् (भा. प्र. । कर्णरो; वृ. मा.) और पत्थरचटा। | कुष्ठहिंगुवचादारुशतालाविश्वसैंधवैः । इनके कवाय और कल्क से सिद्ध तैल पान, पूतिकर्णाषहं तैलं परत मूत्रेण साधितम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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