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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२२२) भारत-भैषज्य रत्नाकर इन्हें मुंह में रखने से कफका नाश होता है। । मन्दे च वह्नौ स्मरपुष्टि की [७४०] करञ्जबीजवर्ती ___ साऽऽफेनसेवाकुलमुक्तिदात्री ॥ (वृ. नि. र; ग. नि; बु. यो. त. ७१; वृ. मा.) कपूर, जायफल, जावित्री, धतूरेके बीज, पलाशपुष्पस्वरसैबहुश:परिभाविता । समन्दरसोख, अकरकरा, त्रिकुटा, बच और करंकरञ्जबीजं सवर्ति दृष्टेः पुष्पं विनाशयेत् ॥ जवा । सब चीजें समान भाग । शुद्ध भांग सबके ____ करंजवेके बीजोंको ढाकके फूलोंके रसकी वजनसे आधी, पुरानी अफ़ीम भांगके बराबर और अनेक भावना देकर वर्ति बनावें । इसे नेत्रों में भांगसे आधा शुद्ध मीठातेलिया मिलाकर चर्ण करके आंजने से नेत्रपुष्प (फूला) नष्ट होता है। भांगरेके रसमें घोटकर बेरकी गुठलीके बराबर गोलियां बनावें। [७४१] कपूरवर्तिः (वृ. नि. र. । मूत्राघा.) । इनके सेवनसे शीतवात, संग्रहणी, बवासीर, कर्पूररजसा युक्ता वस्त्रवर्तिः शनैः शनैः। प्रवल अतिसार, अग्निमांद्य और अफ़ीमकी आदत मेटूमागान्तरे न्यस्ता मूत्राघातं व्यपोहति ॥ दूर होती है एवं काम शक्ति बढ़ती है। ____ कपूरके चूर्णके साथ कपड़ेकीx बत्ती बनाकर उसे धीरे २ मूत्रमार्ग में पहुंचानेसे मूत्राघात (पेशाब [७४३] कलिंगाद्यगुटिका (धन्व.। ज्व.) | कलिंगबिल्वजम्बाम्रकपित्थं सरसाञ्जनम्। बन्द होना) नष्ट होता है। | लाक्षा हरिद्रे हीबेरं कदमलं शुकनासिकाम् ॥ [७४२] कपूरसुन्दरी षटिका लोधं मोचरसं शंखं धातकी वटशुङ्गकम् । (र. प्र.सु. अ. ८) पिष्टा तण्डुलतोयेन वटकानक्षसम्मितान् ॥ कर्पूरजातीफलजातिपत्रिका छायाशुष्कान् पिबेच्छीघ्रं वरातिसारशान्तये । धत्तूरवीजं जलराशिशोषणम् । रक्तप्रसादनाचैते शूलातिसारनाशनाः ॥ आकल्लकं व्योपमिदं समांशं इन्द्रजौ, बेलगिरी, जामनकी गुठली, आमकी द्वीपान्तरोत्था च कुबेरकाक्षम् ।। | गुठली, कैथ, रसौत, लाख, हल्दी, दारु हल्दी, सर्वोषधार्धा विजया प्रदिष्टा सुगन्धवाला, कायफल, काकतुण्डी, लोध, मोचरस, जीर्णाहिफेनं च तथा समानम् । शंखकी भस्म, धायके फूल और वड़के अंकुर । तदर्धभागं खलु वत्सनामं सब चीजें समान भाग लेकर चावलोंके सादेकतश्चात्र विधाय चूर्णम् ।। | पानीमें पीसकर ११-११ तोला वटक बनाकर छायामें तद्भावितं भृङ्गरसेन सम्यक् सुखावें । इन्हें सेवन करनेसे ज्वरातिसार और कोलास्थिमात्रा गुटिका विधेया। शूलयुक्त अतिसारका शीघ्र नाश होता है। एवं सा शीतवाते ग्रहणीगदे च | रक्त शुद्ध होता है। ____ अशोविकारे प्रवलातिसारे॥ | [७४४] कल्पलतावटी (भै. र. । ग्रह.) x कपड़ेकी बत्तीके बजाए पूर्वाधासके साफ अमृतं हिंगुलं धूर्तबीजं द्वादशरक्तिकम् । उठलसे काम लेना उचित प्रतीत होता है। । प्रत्येकमहिफेनश्च पत्रिंशद्रक्तिकं नयेत् ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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