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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३४) भारत-भैषज्य रत्नाकर - तेनात्यहदयक्लोममान्यापार्श्वशिरोगलान् ।। रहे । इससे हृदय, मुख, क्लोम, मन्यापार्श्व और लीनोप्याकृष्यते श्लेष्मा लाघवं चास्यजायते॥ गले आदिमें लिप्त कफ निकल कर लघुता आ जाती पर्व नेदो ज्वरो मूळ निद्रा श्वासगलामयाः।। है । एवं पर्व मंद, ज्वर, मूर्छा, निद्रा, श्वास, गले, शुखाक्षिगौरवं जाड्यमुत्लशचोपशाम्यति ॥ मुख और आंखों के रोग, गुरुता (भारीपन), जडता सकृद् द्वित्रिचतुःकुर्यादृष्ट्वा रोगबलाबलम्। और अरुचि आदि का नाश होता है । इस प्रयोग एसद्धि परमं प्राहुर्भेषजं सन्निपातिनाम् ॥ को बलाबल विचार कर २--४ बार करना चाहिये। अद्रक के स्वरस में सेंधा नमक और त्रिकुटा सन्निपातके लिये यह अत्युत्तम प्रयोग है । मिला कर *कवलग्रहण करे और बारम्बार थूकता [३८५] आर्द्रकादि स्वरसः ____ * पृष्ट१२ में गण्डूष को व्याख्या लिखी जा (वृ. नि. र. शोथा) चुकी है। कवल और गण्डूष दोनों एक ही प्रकार के कर्म हैं परन्तु इतना भेद है कि गण्डू रसस्तथैवाकनागरस्य एमें द्रव पदार्थ इतना लिया जाता है कि वह पेयोथजीर्णे पयसाथचाद्यत् । नुखके भीतर चलायमान न हो सके और शिलाह्वयं वा त्रिफलारसेन चलमें इतना लिया जाता है कि जिससे सुख हन्यात् त्रिदोषं श्वयधुं प्रसह्य ॥ पुर्वक चलाया जा सके। कचल के लिये द्रव पदार्थ में चूर्ण १ तोला त्रिदोषज शोथ रोगकी शान्ति के लिये अद्रकका जिलाना चाहिये ! कवल और गण्डप ५ वर्ष स्वरस और सोंठका काथ अथवा त्रिफले के रसमें की अवस्था से धारण कराए जा सकते हैं। । शिलाजीत मिलाकर सेवन करना चाहिये. और ___ कवल और गण्डूष धारण करने के लिये औषध पचजानेपर दुग्धयुक्त भोजन करना चाहिये। जकाग्रचित्त हो कर सीधे बैठना चाहिये और उस समय तक धारण करे रहना चाहिये [३८६] आस्थापनोपगमहाकषायः जब तक कि मुंह दोषों (ककादि) से न भर आय और नाक. आंत्र आदि से पानी न निक (च. सं. सू. अ. ४) लने लगे। ऐसी दशा होनेपर पहिले कवलको त्रिविल्वपिप्पलीकुष्ठसर्षपवचावत्सकनिकाल कर दूसरी बार पुनः धारण करना फलशतपुष्पामधुकमदनफलानीति दशेचाहिये । इसी प्रकार ३ से ८ बार तक धारण करना उचित है। मान्यास्थापनोपगानि भवन्ति । मचल और गण्डूष के ४ मेद हैं: निसोत, बेल, पीपल, बूट, सरसों, बच, १-नेही-जो वातज रोगों में स्निग्ध और ऊष्ण इन्द्रजौ, सौंफ. मुलहैटी और मैनफल यह आस्था जाधियों से धारण किया जाता है। २-अलादी-जो पैत्तिक रोगों में मधुर और पनोपग महा कपाय है। सीलाल द्रव्यों से धारण किया जाता है। ४-रोपणी-इसका प्रयोग व्रण (धावों) के लिये डीओ कफज रोगों में कटु. अम्ल और | किया जाता है एवं इसके कषाय, तिक्त रामरक युक्त तथा रूक्ष और ऊष्ण द्रव्यों और मधुर रस युक्त एवं ऊष्ण भौषधियां हैरण किया जाता है। । व्यवहत होती है। For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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