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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकारादि-रस (११९) उमे वह्निरसैर्भाव्ये शोष्ये पेध्ये दिनत्रयम् । । दूध में इसकी नस्य देने से सन्निपात का नाश मेलयेत्पूर्वसूतेन तदधं टङ्कणं क्षिपेत् ॥ होता है। अर्कक्षीरैः पुनः सर्व यामैकं मर्दयेद् दृढम् ।। [३३०] अर्केश्वरः तच्छुष्कं चूर्ण लिप्तेऽथ भाण्डेरुद्ध्वा पुटेपचेत् ॥ (र. रा. सुं., र. सा. सं. रक्तपि.) चतुर्गुजामितं खादेन्मरिचाज्येन संयुतम् ।। | मृतार्क मृतं वङ्गंश्च मृतानं च समाक्षिकम् । देयं दध्योदनं पथ्यं विजयासगुडानिशि ॥ | अमृताम्बुरसैर्भाव्यं त्रिसप्तक पुटे पचेत् ॥ ग्रहणीदोषनाशार्थ नास्त्यनेन समम्भुवि । वासा क्षौद्रविदारीभ्यां चतुर्गुञ्जा प्रमाणतः । ग्रहणीं नाशयेत्सर्वामर्कलोकेश्वरो रसः ॥ भक्षणाद्विनिहन्त्याशु रक्तपित्त सुदारुणम् ।। ५ तोला शुद्ध पारद को बार २ आक के | ताम्रभस्म, बंगभस्म, अभ्रकभस्म और सोनादूध में खरल करके उसने शुद्ध गन्धक १० तोला । मक्खी भस्म समान भाग लेकर सबको गिलोय और बड़े शंखकी भस्म ४० तोला (दोनों को चीते और सुगन्ध बाला के रसकी २१ पुट देकर शराव के रसमें तीन दिन खरल करके) और सुहागे की | संपुट में रखकर फूंक दे फिर अडूसा, शहद और खील २॥ तोला मिलाकर प्रथम पारा गन्धककी विदारीकन्द के रसमें घोटकर चार रत्ती की गोलियां कजली करके उसमें अन्य औषधियां मिलाकर एक | बनावे,इसके सेवन से रक्तपित्त तत्काल नष्ट होता है। प्रहर आक के दूध में खरल करे, फिर उसको सुखा । [३३१ अर्केश्वरो रसः कर शराबों के भीतर संपुट कर के फूंक दे, जब (र. र. स. । अ. २१) शीतल हो जाय तब निकाल कर रक्खे इसमें से | रसेन गन्धं द्विगुणं प्रमर्य ४ रत्ती रस काली मिर्च और धी के साथ खावे, ताम्रस्य चक्रैण सुतापितेन । इसपर दही भाथ का पथ्य और रात्रि में गुड मिली | आच्छाध भृत्या तु ततःप्रयत्नाहुई भांग देनी चाहिये, संग्रहणी दोष के दूर करने चक्री विलग्नं च रसं प्रगृह्य ।। को इससे बढकर दूसरी औषधि पृथ्वी पर नहीं है, | विचूर्ण्य तद् द्वादशधार्कदुग्धैः सब प्रकार की संग्रहणी को यह अर्क लोकेश्वररस | पुटेत वह्नित्रिफलाजलैश्च । दूर करता है। | सम्भावितोऽर्केश्वर एष सूतो [३२९] अर्केश्वरो रसः (र. रा. मुं. सन्नि.) गुञ्जाद्वयं चास्य फलत्रयेण ॥ मृतसूतं मृतं तानं मृततीक्ष्णं च टङ्कणम् । ददीत मासत्रितयेन सुप्तखपरं त्रिकटुं तालं अर्कक्षीरेण मर्दयेत् ॥ वाताद्विमुक्तो हि भवेद्धिताशी। दिनकेन भवेत्सिद्धं नाम्ना ह्यश्वरो रसः। क्षारं सुतीक्ष्णं दधिमांसमा अर्कक्षीरेण वै नस्य सनिपातहरं परं ॥ वृन्ताकमध्वादिविवर्जनीयम् ॥ रससिंदूर, ताम्रभस्म, लोहभस्म, सुहागे की __ शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक *दो भाग। खील, शुद्ध खपरिया, त्रिकुटा और शुद्ध हरताल । दोनों को खूब खरल करके (किसी मिट्टी के बरइन सबकोआकके दूध से १ दिन खरल करे । आकके । * कहीं कहीं गन्धक ३ भाग लिखा है। For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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