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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ भामिनी-विलासे विटपिनः शाखावन्तः शाखाः तैत्तिरीयादयः दृष्टाः, तथापि त्वत्समं जगति न प्रपेदे । अर्थात् ] "हे गुरो ! मोक्षकी इच्छासे मैंने सभी शास्त्रज्ञोंसे पूछा, सभी इतर शाखावालोंको देखा, किन्तु तुम्हारे सदृश मुझे अन्य कोई नहीं दीखा।" यह अर्थ करके इसे श्लेष अलंकार माना है। वस्तुतस्तु इस अर्थको लेकर मधुपसे यह अन्योक्ति कही गयी है ऐसा कहा जाय तो संभव भी हो सकता है। परपुष्ट शब्द कोयलके लिए ही प्रसिद्ध है । देखिये शाकुन्तल-"प्रागन्तरिक्षगमनात्स्वमपत्यजातमन्यदिजैः परभृताः खलु पोषयन्ति" "परैः लोकैः पुष्टा जनाः" यह कष्टसाध्य अर्थ है। इसपर भी विटपिनः के स्थानमें शाखिनः पद होता तो किसी प्रकार श्लेष हो सकता था, अर्थकी खींचतान न करनी पड़ती। हमारी समझमें तो कविने भ्रमरकी इस अन्योक्तिद्वारा अपने आश्रयदाताकी प्रशंसा को है। अपनेको पूर्ण गुणज्ञ और उसे पूर्ण गुणवान् सिद्ध किया है। यह अनन्वय अलंकार है; क्योंकि सादृश्याभाव होने से माकन्द स्वयं उपमान है और स्वयं ही उपमेय । आर्या छन्द है ॥२७॥ विपत्कालीन सहायता ही वास्तविक सहायता है तोयैरल्पैरपि करुणया भीमभानौ निदाघे ___ मालाकार व्यरचि भवता या तरोरस्य पुष्टिः । सा किं शक्या जनयितुमिह प्रावृषेण्येन वारां धारासारानपि विकिरता विश्वतो वारिदेन ॥२८॥ अन्वय-मालाकार ! भवता, भीमभानौ, निदाघे, करुणया, अल्पैरपि, तोयैः, अस्य, तरोः, या, पुष्टिः, व्यरचि, सा, इह, विश्वतः, वारां, धारासारान् , विकिरता, अपि, प्रावृषेण्येन, वारिदेन, जनयितुम् , शक्या, किम् ? For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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