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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पण्डितराज जगन्नाथ "नैषधीय चरित" को "क्रमेलकवत् विसंष्ठुलं" ( उँटकी तरह बेढंगा) कहनेका साहस पण्डितराजको ही हो सकता है । वे नैषधके "उपासनामेत्य पितुः स्म रज्यते-" इस पद्यको दोषवर्जित करके सुधारकर जब रसगंगाधर में पढ़ते हैं तब उनका कथन अयथार्थ नहीं प्रतीत होता । श्रीमधुसूदन सरस्वती पण्डितराजके कुछ ही पूर्ववर्ती हैं । उनका भक्तिरसविषयक सिद्धान्त भी पण्डितराजकी आँखोंसे ओझल नहीं है । इसके स्वतंत्र विवेचनका निर्देश भी उन्होंने किया है और भगवद्भक्तोंके भावको भी वे अच्छी प्रकार समझे हैं। किन्तु फिर भी उन्हें भक्तिका रसत्व इसलिये स्वीकार नहीं है कि भरतकी की हुई व्यवस्था आकुलित हो जायगी। किसी भी प्राचीन आलंकारिक सिद्धान्तकी ये अवहेलना नहीं करते । पाण्डित्यपूर्ण शैलीमें उसपर विवेचना करते हैं और तब अपना मत अभिव्यक्त करते हैं। इनकी भाषा प्रसन्न एवं ओजस्विनी है । गुण-दोषविवेचनमें सूक्ष्मसे सूक्ष्म तत्त्वपर भी इनकी दृष्टि पहुँचती है। एक स्वतंत्र विवेचक होते हुए भी ये मम्मट तथा आनन्दवर्धनके मतको पुष्ट करते हैं। जहाँ उनकी भी आलोचनाका प्रसंग आया है वहाँपर चूके नहीं है, किन्तु संयत और शिष्ट भाषामें "आनन्दवर्धनाचार्यास्तु ......."तच्चिन्त्यम्" कहकर खुलकर अपने भावोंको व्यक्त किये हैं। इनकी यह शिष्टता और संयम केवल अप्पयदीक्षित और भट्टोजिदीक्षितके लिये सोमाका उल्लंघन कर जाता है । यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि पण्डितराजकी गद्य-पद्यमें उत्पादिका प्रतिभा विलक्षण है, सौन्दर्यांकनकी शक्ति प्रचुर है, सूक्ष्मेक्षिकाके ये अत्यन्त धनी हैं। संस्कृतसाहित्यमें अपनी जोड़के ये स्वयं हैं, यह अतिशयोक्ति नहीं। For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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