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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'अन्योक्तिविलासः -समुद्र महान् है, उसकी जलराशि अपार है, मेघ उससे ही जल लेकर संसारमें बरसाते हैं । यदि उस बरसाये हुए जलको समुद्र पुनः ग्रहण करता है तो एक प्रकारसे अपने ही दिये हुए दानको ग्रहण करता है। जो किसी साधारण व्यक्तिके लिये भी निन्दनीय है, फिर सागर जैसे महान् की तो बात ही क्या । यह अन्योत्ति किसी ऐसे कृपण व्यक्ति या शोषक शासकके प्रति कही गई प्रतीत होती है जो दिखानेके लिए तो खूब देता है, किन्तु प्रकारान्तरसे उसे खींच लेता है । अप्रस्तुत समुद्रसे प्रस्तुत किसी कृपणकी अभिव्यक्ति होनेसे अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है और अनुप्रास भी। यह मालभारिणी छन्द है-स स जा प्रथमे पदे गुरू चेत् स भ रा येन च मालभारिणी स्यात् । (वृत्त० ) ॥ ४२ ॥ श्रेष्ठ व्यक्तियोंके सम्मुख इतराना उचित नहींन वारयामो भवती विशन्ती वर्षानदि स्रोतसि जह्न जायाः। न युक्तमेतत्तु पुरो यदस्यास्तरङ्गभङ्गान्प्रकटीकरोषि ॥४३॥ अन्वय--वर्षानदि ! जह्न जायाः, स्रोतसि, विशन्ती, भवती, न वारयामः, तु, एतत् , न युक्तं, यत् , अस्याः, पुरः, तरङ्गभङ्गान् , प्रकटीकरोषि । शब्दार्थ-वर्षानदि = हे वर्षाकालकी क्षुद्रनदी ! जन्हुजायाः = जाह्नवीके । स्रोतसि = प्रवाहमें । विशन्ती = घुसती हुई। भवती = आपको। न वारयामः = हम नहीं रोकते । तु = किन्तु । एतत् न युक्तं यह ठीक नहीं है। यत् = कि । अस्याः पुरः = इस गंगाके सामने । तरङ्गभङ्गान् = लहरोंकी उछालोंको। प्रकटीकरोषि = दिखा रही हो । टीका-हे वर्षानदि ! जह्वोर्जाता जनजा = गङ्गा, तस्याः । स्रोतसि = प्रवाहे ( स्रवति, स्रु गतो+ असुन् + तुट् आगमः (उणादि); स्रोतोऽम्बुसरणं स्वतः-अमरः ) विशन्तीम् = एकीभावं कुर्वन्तीं। भवती For Private and Personal Use Only
SR No.020113
Book TitleBhamini Vilas ka Prastavik Anyokti Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagannath Pandit, Janardan Shastri Pandey
PublisherVishvavidyalay Prakashan
Publication Year1968
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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