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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥११३४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir असंखेज्जा भा०, सेसं तं चैव जाव असंखेज्जा अचरिमा प०, नाणत्तं लेस्सासु, बेसाओ जहा पढमसए नवरं संखेज्ववित्थडेसुवि असंखेज्ज वित्थडेसुवि ओहिनाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा उब्बवावेपव्वा, सेसं तं चैव ॥ [प्र० ] हे भगवन ! आ रत्नप्रभा पृथिवीना श्रीशलाख नरकावासीमांना असंख्यात योजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे एक समये केटला नारको उत्पन्न थाय, यावत्-केटला अनाकारोपयोगवाळा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गोतम ! आ रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रीशलाख नरकावासीमांना असंख्यातयोजन विस्तारवाळा नरकावासीने विषे एक समये जघन्यथी एक, बे के ऋण अने उत्कृष्टथी असं| ख्याता नारको उत्पन्न थाय छे, ए प्रमाणे जेम संख्याता विस्तारवाळा नरकने विषे ( उत्पाद, च्यवन अने सत्ता ) ए त्रण आलापक | कला तेम असंख्यातयोजन विस्तारवाळा नरकावासोने विषे पण त्रण आलापक कहेवा, परन्तु अहिं 'असंख्याता' एवो पाठ कहेवो. बाकी वधुं पूर्व पेठे जाणं, यावत् 'असंख्याता अचरम नारको कहेला छे'- त्यांसुधी कहेवुं. लेश्याने विषे विशेषता के अने ते लेश्याओ प्रथम शतकमां कह्या प्रमाणे जाणवी. परन्तु एटलो विशेष छे के संख्यात योजन विस्तारवाळा अने असंख्यात योजन विस्तारवाळा नरकावासीने विषे अवधिज्ञानी अने अवधिदर्शनी संख्याताज च्यवे छे, एम कहेतुं, बाकी वधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढबीए केवतिया निरयावास० पुच्छा, गोयमा ! पणवीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते! किं संखेज्ज वित्थडा असंखेज्जवित्थडा एवं जहा रयणप्पभाए तहा मकरप्पभाएवि, नवरं असन्नी तिस्रुवि गमःसु न भन्नति, सेसं तं चैव । वालुयप्पभाएं णं पुच्छा, गोयमा ! पन्नरस निरयावास सयस| हस्सा प सेसं जहा सरप्पभाए, णाणत्तं लेसासु, बेसाओ जहा पढमसए | पंकष्प भाए पुच्छा, गोयमा ! दस For Private And Personal १३ शतके उद्देशः १ ॥ ११३४॥
SR No.020110
Book TitleBhagvati Sutram Part 05
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
PublisherHiralal Hansraj
Publication Year1940
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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