SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalashsagarsuri Gyanmandir मेष ॥१४॥ AECSIABAR पारंवार जशे अने नीकळशे. ते वखते शतद्वार नगरने विष घना मांडलिक राजाओ, युवराजा यावत्-सार्यवाह प्रमुख एकबीजाने PM बोलाव, बोलावीने कहे के 'हे देवानुप्रियो । जेथी अमारा देवसेन राजाने श्रेत, निर्मल शंखतळना जेवो भने चार दांतवाळो उत्तम इस्ती उत्पन्न भयो छे, ते माटे हे देवानुप्रियो ! अमारा देवसेन राजानु त्रीशुं नाम "विमलवाहन' हो. त्यारे ते देवसेन राजार्नु 'विमलवाहन' एवं त्रीजु नाम पडशे. स्वारवाद ते विमलवाहन राजा अन्य कोई दिवसे श्रमण निग्रन्थोनी साघे मिथ्यात्वअनार्यपणुं आचरशे, केटलाएक श्रमण निग्रन्थोनो आक्रोश करशे, केटलाकनी हांसी करशे. केटलाएकने ज्दा पाडशे, केटलाएकनी निर्भर्त्सना करशे, केटलाएकने बांधशे, केटलाएकने रोकशे, केटलाएकना अवयवोनो बेद करो, केटलाएकने मारने, केटलाएकने उपद्रव करशे, केटलाएकना वस्त्र, पात्र, कांवल अने पादच्छन छेदशे, विशेष छेदशे, मेदशे, अपहरण करश; केटलाएकना भातपाणीनो विच्छेद करशे, केटलाएकने नगरथी पहार काढशे बने केटलाएकने देशथी बहार काढशे.ते समये शतद्वार नगरने विषे घणा मांडलिक राजाओ अने युवराजाओ यावत् परस्पर-कहेशे के 'हे देवानुप्रियो! ए प्रमावे खरेखर विमलवाहन राजाए श्रमण निर्ग्रन्थोनी साथे मिथ्या-अनार्यपणुं स्वीकार्य छे, यावत्-केटलाएकने देशथी बहार काढे, ते माटे हे देवानुप्रियो। ए आपणने श्रेयरूप नथी, आ विमलवाहन राजाने श्रेयरूप नधी, तेमज आ राज्यने, आ राष्ट्रने, बलने, वाहनने, पुरने, अन्तःपुरने के देशने श्रेयरूप नथी के जे विमलबाहन राजाए श्रमण निग्रन्थोनी साये मिथ्या-अनार्यपणुं स्वीकार्य छे. ते माटे हे देवानुप्रियो । आपणे विमलवाहन राजाने आ पात जणाववी योग्य है.' एम विचारी एकनीजानी पासे आ वातनो स्वीकार करे , स्वीकार करीने ज्यां विमलबाहन राजा के त्वां आवे के, त्यां आवीने करतल परिग्रहीत करीने-हाथ जोडीने विमलवाहन राजाने जय अने विजयथी For Private And Personal
SR No.020110
Book TitleBhagvati Sutram Part 05
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
PublisherHiralal Hansraj
Publication Year1940
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy