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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्याप्रज्ञप्तिः ।। १३८५ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कवाय, कारण के ते परिणमे छे माटे ते परिणत कद्देवाय, पण 'अपरिणत' न कहेवाय. ए प्रमाणे कही उत्पन्न थयेला ते अमायिसम्यग्दृष्टि देवे उत्पन्न थयेला मायिमिध्यादृष्टि देवनो पराभव कर्यो. त्यारपछी तेणे ( सम्यग्दृष्टि देवे ) अवधिज्ञाननो उपयोग कर्यो, भने अवधिद्वारा मने जोईने ते सम्यग्दृष्टि देवने आ प्रकारनो संकल्प उत्पन्न थयो के जंबुद्वीपमां भारतवर्षमां ज्यां उब्लुक तीर नामनुं नगर छे, अने ते नगरमां ज्यां एकजंबूक नामनुं चैत्य हे त्यां श्रमण भगवंत महावीर ययायोग्य अवग्रह लेइने विहरे छे, तो त्यां जई ते श्रमण भगवंत महावीरने वांदी यावत् पर्युपासी आ प्रकारनो प्रश्न पूछवो ए मारे माटे श्रेयरूप छे, एम विचारी चार हजार सामानिक देवोना परिवार साथे-जेम सूर्याभ देवनो परिवार कह्यो छे तेम अहिं पण समजनुं यावद - निर्घोष नादित स्वपूर्वक जे तरफ जंबूद्वीप छे, जे तरफ भारतवर्ष के, जे तरफ उल्लुकतीर नामनुं नगर छे, अने जे तरफ एकजंबूक नामनुं चैत्य के तथा ज्यां आगळ हुं विद्यमान हुं ते तरफ आववाने तेणे (सम्यग्दृष्टि देवे) विचार कर्यो. त्यारबाद ते देवेन्द्र देवराज शक्र मारी तरफ आता ते देवनी तेवा प्रकारनी दिव्य देवर्षि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवप्रभाव अने दिव्य तेजोराशिने न सहन करतो आठ संक्षिप्त प्रश्न पूछी अने उत्सुकतापूर्वक बांदी यावत्-चाल्यो गयो. ।। ५७५ ॥ जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमहं परिकहेति तावं च णं से देवे तं देतं हव्यमा गए, तए णं से देवे ममणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो बंदति नम॑सति २ एवं वयासी एवं खलु भंते! महासुके कप्पे महासामाणे बिमाणे एगे माथिमिच्छदिविवन्नए देवे ममं एवं व्यासी- परिणममाणा पोग्गला नो परिया अपरिणया परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया अपरिणया, तप णं अहं तं मायिमिच्छदिट्टिउबवन्नगं देवं For Private And Personal १६ शतके उद्देशः ५ ॥१३८५।।
SR No.020110
Book TitleBhagvati Sutram Part 05
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
PublisherHiralal Hansraj
Publication Year1940
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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