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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥७१०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नरक पृथ्वी सुधी जाणं. परन्तु देशबन्धने विषे जेनी जे जघन्य स्थिति होय तेने एक समय न्यून करवी, अने यावत जेनी उत्कृष्ट स्थिति होय ते पण समय न्यून करवी. पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच अने मनुष्यने वायुकायिकनी पेठे जाणवुं. असुरकुमार, नागकुमार, याबद् | अनुत्तरौपपातिक देवोने नारकनी पेठे जाणवा; परन्तु जेनी जे स्थिति (आयुष्य) होय ते कहेवी, यावद् अनुत्तरौपपातिकोनो सर्वबन्ध एक समय, अने देशबन्ध जघन्यथी ऋण समय न्यून एकत्रीश सागरोपम सुधीनो होय छे; तथा उत्कृष्टथी एक समय न्यून तेत्रीश सागरोपम सुधीनो छे. [प्र०] हे भगवन् ! वैक्रियशरीरना प्रयोगबन्धनुं अन्तर कालथी क्यां सुधी होय ? [उ०] हे गौतम ! सर्वच - न्धनुं अन्तर जघन्यथी एक समय, अने उत्कृष्टथी अनंतकाल - अनन्त उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, यावद् आवलिकाना असंख्यातमा - भागना समय तुल्य असंख्य पुद्गल परावर्त सुधी होय छे. ए ममाणे देशबन्धनुं अन्तर पण जाणवु. बाउक्काइयवेउब्विय सरीरपुच्छा, गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेइभागं, एवं सबंधंतरंपि॥ तिरिक्खजोणिय पंचिंदिय वेउब्विय सरीरप्पयोगबंधंतरं पुच्छा, गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुत्र्वकोडीपुहुत्तं, एवं देसबंधंतरंपि, मणूसस्सवि || जीवस्स णं भंते ! वाउकाइयत्ते नोवाउकाइयत्ते पुणरवि वाउकाइयते वाउकाइयएगिंदिय० बेउब्वियपुच्छा, गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंत कालं वणस्सइकालो, एवं देसबंधंतरंपि ॥ जीवस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविनेरइयत्ते णोरयण भादंवि० पुच्छा, गोयमा ! सव्वबंधतरं जहनेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई उक्कोसेणं वणरसइकालो, देसबंधंतरं जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं वणस्सइकालो, एवं जाव अहेसत्तमाए, नवर For Private and Personal Use Only ८ शतके उद्देशः ९ ॥७१०॥
SR No.020108
Book TitleBhagvati Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
PublisherHiralal Hansraj
Publication Year1938
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size12 MB
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