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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्तिया अगस्तिया नामा, काकशीर्ष , स्थूलपुष्पः, सुपूरकः, रकपुष्पः, मुनितरुः, अगस्तिः, वङ्कसेनः, शीघ्रपुष्पः,ब्रणारिः, व्रणापहः, दीर्घफलकः, वक्रपुष्पः, सुरप्रियः, शिवापीडः, सुव्रतः, शिवाङ्कः, शिवेष्टः, शिवाहादः, शाम्भवः, क्रमपूरकः, रविसन्निभः, शुक्र पुप्पः, कनली, खरध्वंसी, और पवित्र-सं० । बकंपुष्पः बक (श्री) बकफुलेर- गाछ बास्कोना फुलेर गाछ -बं० । अगस्त- अ०, फा०, उ० । सिस्बेनियां giftar Sesbania Grandiflora, Pers.) yaft gtis atragati Gralldiflora, Dest. ) इस्कीनामेनी ग्रां. (Eschynomen, G., Linn.)-ले०। लार्ज फ्लावर्ड एगेटी (Large floweled nyati)-६० । कत्ति, गती, अगात्ति, श्रगति-ता० । आनिसे, अविसि, लल्लयबिसेचेह-ते। अकत्ति-मल०। अगशी (सी)-कना० हदगा, अगस्ता-मह० । अगथियो- गु० । अगसेयमनु-का० । अगासल-बाव. । गफलसुन्द० ब० । कतुरु-मुरङ्गा-सिंहली । लीग्यूमिनासी (शिम्बी वा वब्बुर वर्ग) (N. 0. Leguminoste. ) उत्पत्ति स्थान-दक्षिणी तथा पश्चिमी भारत वर्ष । गंगा की घाटी और बंगदेश । वानस्पतिक वर्णन- अगस्तिएका वृक्ष समस्त भारतवर्ष में विशेषकर पुष्पांद्यानों में अधिक होता है । इसकी अवस्था बहुत थोड़ी होती है। यह थोड़े वर्षों में ही लगभग ३० फीट की ऊँचाई तक पहुँचकर पुनः सतप्राय हो जाता है। काराड-सरल, ६ । है हाथ दीर्घ शास्त्रा-घन सन्निविष्ट नहीं-फाँक फोंक होती हैं। पत्ते-बबूल के समान किंतु इससे बड़े दीर्घ वृन्त के जोड़ेजोड़े दोनों ओर २१ । २१ अथवा इससे न्यूनाधिक संख्या में लगे होते हैं। ये . 1-10 इं. लम्बे और अंडाकार स्वाद में कुछ । अम्ल और कसैले होते हैं। . पुष्प-बड़ा, शुभ्र वा रकवर्ण का एवं कोरकितावस्था में चन्द्रकला के समान वक्र होता है। श्रीहर्ष कवि ने यथार्थ कहा है "मुनिद्रुमः कोरकितः सितयुति बनेह मुना मन्यत सिंहिका सुतः । तमिस्र पक्ष कटिकृत भक्षितः कलाकलापं किल वैधवं वमन् -पधचरित बाह्य कोष-( Calyx ) घंटाकार, द्विश्रोप्टीय और हरितवर्ण का होता है । पुष्प-तितली स्वरूप, श्वेत या रक्तवर्णीय( आयुर्वेद में नील वा श्याम दो अधिक लिखे हैं ) ॥-२ इंच लम्बा वक्र तथा गूदादार होता है। पुष्पाभ्यन्तरकोष - ( Corolla ) में विषमाकृति की चार पंखड़ियाँ ( दल ) होती हैं। जिनमें से ऊपर ध्वजा (Standard) और दोनों बगल में :-१ पक्ष (wing ) तथा नीचे तारणी (kool) होती है । तारणी( kecl) के भीतर परागकेशर (१०) तथा रति वा गर्भ केशर (1) ढके होते हैं। प्रत्येक गुच्छे में २ या ४ पुष्प कक्षस्थ डंठल में लगे होते हैं। इसका स्वाम-लुभाबी तथा तिक होता है। फलो-लटकनदार, १-१॥ फीट के लगभग लम्बी कुछ चिपटी तथा बीजों के मध्य में दबी होती है। प्रत्येक फलीम लगभग ४०-४१ बीज होते हैं । ___ वृक्ष त्वचा-लम्बाई के रुव चिड़चिड़ाई और बाहर से देखने में धूसर वर्ण की प्रतीत होती है । शुष्क काप्ठ मांटाई में ताजे काष्ट के बराबर होता है। ताजी दशा में दरारों के मध्य असंख्य सूक्ष्म अनुवन् ताम्रवर्ण के निर्यास दीख पड़ते हैं, किंतु वायु में खुले रहने से ये पुनः शीघ्र श्यामवर्ण के हो जाने हैं। नवीन स्वचा का वाह्य तल रक्रवर्ण का और इसी प्रकार के नर्म गोंद से लदा रहता है। इतिहास तथा नाम विरण- अगस्त्य मुनि के नाम पर इस वृक्ष के नाम श्रगस्ति और अगस्त्य प्रभति रक्खे गए हैं। कहते हैं जब अगस्त्य मुनि का उदय होता है तब ही अगस्तिया के फूल बिलने हैं । इसका श्रीषधीय उपयोग ग्राज का नहीं वरन् अति प्राचीन है। प्रयोगांश-त्वच:, पत्र, पुष्प, मृल, शिरिब और निर्यास। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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