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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अगर www.kobatirth.org I इसकी अगर बत्ती बहुत बनती है । सिलहट में अगर का इत्र बहुत बनता है । चोत्रा नामक सुगंध इसी से बनता है वानस्पतिक वर्णन - अगर के बेडौल टुकड़े होते हैं जो उनमें राल के परिमाणानुसार धूसर या गहरे धूसर वर्ण आदि विभिन्न रंगों के होते हैं । हलके तथा गहरे दोनों रंगों के टुकड़े लम्बाई की रुख़ गहरे रंग के नसों से चित्रित होते हैं, ये जल में डालने से जलमग्न हो जाते हैं । इसे चबाने से ये दाँतों में चिपट जाते तथा मृदु प्रतीत होते हैं । स्वाद-तिक तथा सुगन्ध युक्त | जलाने से इसमें से ग्राह्य गंध आती है। 1 प्रयोगांश-काष्ट | रसायनिक संगठन - एक उड़न शील तैल, जो ईथर में विलेय होता है, दूसरा राल जो मद्यसार (अल्कुहाल ) में घुलनशील तथा ईथर में धुल होता है । श्रौषध निर्माण - काथ ( १० में १ ); मात्रा - ४ से १२ ड्राम चूर्ण तथा कल्क अनेक औषधियों से युक्त पाक आदि; मात्रा - १० से ३० रती । तैल- ३० से ६० बूंद | गुणधर्म तथा उपयोग. आयुर्वेदीयमतानुसार - अगर शीत, प्रशमन और कासन है । च० । ४४ अगर वात-कफहर, वर्णप्रसादक, देह का रंग सुधारने वाला) खुजली नाशक और कुष्टनाशक है । अगर की लकड़ी को जल में प्रौटाकर उस पानी को पीने से ज्वर में लगने वाली वृषा न्यून होती है और यह मृगी एवं उन्माद आदि रोगों में परमोपयोगी है । सु० । अगर तिक्क, उष्ण, चरपरा, लेप करने से रूक्षता उत्पन्न करने वाला, त्वचा को हितकर, तीक्ष्णपित्तकारक और हलका है तथा व्रण, कफवात, वमन, मुख रोग एवं चक्षु श्रौर कर्ण रोग नाश करने वाला है । रा० नि० ० १२ । वा० चि० ४ श्र० । | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर जो अगर काले रंग का होता है उसे कृष्णा गुरु कहते हैं । यह अधिक गुण वाला और लोहे के स पानी में डूब जाता है। अगर से बनाए हुए तैल में भी काले श्रगर के सदृश ही गुण हैं । भा० क० ० । अगर गन्ध - गरम, तिक्र, कटु, स्निग्ध, मंगलदायक, रुचिकारी धूपके योग्य पित्तजनक, तीक्ष्ण हैं तथा वात, कफ, कर्णरोग और कोड़ का नाश करता है । लेप में और लगाने में श्रेष्ठ है । नि० ० 1 1 वक्तव्य इस देश में अति प्राचीन काल से अनुलेपन व श्रौषध रूप से अगर व्यवहार में रहा है । श्रतः चरक सूत्रस्थान ३४ अध्याय में शिरोवेदनाहर एवं शीतहर प्रलेप में अगरू का उल्लेख दिखाई पड़ता है | चरको शीत ऋतुचर्या में अगर के अनुलेपन का उपदेश किया गया है | सुश्रुत में ब्रणधूपन द्रव्यां के मध्य अगर का पाठ दिया है । (सु० ६ श्र० ) । अगर का तेल पीत वर्ण का एवं अगर के समान गंध वाला होता है । भाव प्रकाशकार लिखते हैं - अगर के तेल का गुण कृष्णागुरु अर्थात् काले अगर के समान हैं, यथा "गुरु प्रभवः स्नेहः कृष्णागुरु समोमतः ।” उत्तम श्रगर की लकड़ी को जल से घिस कर शरीर में लगाने से उसका वर्ण उज्ज्वल होजाता है इसी लिए इसका एक नाम " वर्ण प्रसादन " है । For Private and Personal Use Only यूनानी मत के अनुसार — प्रकृति दूसरी कक्षा में गरम और तीसरी कक्षा में रूत्र है । किसी किसी के मतानुसार दूसरी कक्षा में गरम व रूक्ष है । हानिकर्त्ता - उष्ण प्रकृति को इसका पीना और धूनी देना । दर्पन - गुलाब, कपूर, सिकंजबीन | प्रतिनिधि - दालचीनी, लौंग, केशर, चंदन बालछड़, रूमी मस्तंगी । गुण कर्म-प्रयोग(१) हलकी अपनी सुगन्धि एवं प्रकृताष्मासे प्राण वायु को बलप्रद होने के कारण श्रामाशय यकृत, हृदय तथा इंद्रियों को बल देता है और इसी
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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