SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगर गर -ले० । एलोबुड Aloe wood, ईग़ल बुड Eagle wood-10 बायस डी कैलम्बक ( Boisde Calambite)-फ्रां)। अगर, अगलीचन्दन-ता। हल्गुहचेटु--ते । कृष्नागरु, अगरु--ता० ते0, कना)। कृष्णागर शिशवाचे झाड़-म० । अगरू-गु० । अवयन-बर) । श्राकिल-मलाबा० । हागलगंध-तु० । चिन--हिअंगचीन । गरू, क्यागहरू--मल० । सासी -श्रासा। थाईमलेसोई वर्ग [ N. O. thymelaceae] उत्पत्ति स्थान--प्रासाम, पूर्वी हिमालय पश्चिमीमलय पर्वत, खसिया पर्वत, भूटानसिलहर, टिपेरा पहाड़ी, मर्तबान पहाड़ी, पूर्वी बंगाल प्रांत, दक्षिण प्रायद्वीप, मलका और मलायाद्वीप; नाट-अासाम प्रदेश प्राचीन काल से अगुरु वृक्ष की जन्मभूमि होने के लिए विख्यात है। रखु दिग्वजय वर्णन काल में कालिदास लिखते अनार्यजं या अनाय्यक है। अस्तु विलियम डाइमाक नहोदय का निश्चय है कि भारतीयों से प्रथम कदाचित् पूर्वी एशिया के मूल निवासियों को इसके उपयोग का ज्ञान हुआ। प्राचीन समय में खुश्की के रास्ते यह मध्य एशिया और फारस में लाया गया और वहां से अरब और यूरूप में पहुँचा | राजनिघण्टुकार ने कृष्णागुरु ( काला अगर), काप्टागुरु ( पीली अगर), दाह काम्, दाहाग (गु)रू (गुर्जर देश प्रसिद्ध अगरु विशेष) तथा स्वाद्वगुरु (मङ्गल्यागुरु, मधुर रसागुरु, कंदार देश प्रसिद्ध अगर ) नाम से इसे पांच प्रकार का लिखा है। नघण्ट्रकार के मतसे मङ्गल्यागरुक है। विस्तृत विवरण के लिए उन उन नामों के अन्तर्गत देखिए । भावप्रकाशकार-इसके चार प्रकार के भेदों को स्वीकार नहीं करते । ऐसा विदित होता है कि अरब यात्रियों ने इसके व्यापार एवं उत्पत्ति स्थान के सम्बन्ध में काफी समाचार संग्रह किए हैं। चकम्पे तीर्ण जौहित्ये तस्मिन् प्राग् ज्योतिषेश्वरः ।। तद्गजालानतां प्राप्तः सह कालागुरु द्र मैः ॥ [रधु०, ४ र्थ सर्ग] इतिहास-अगर का सुगन्धि तथा औषध । तुल्य उपयोग आज का नहीं वरन् अत्यन्त प्राचीन है। इसकी प्रचीनता का पता तो केवल एक इसी बात से लग सकता है कि इसका वर्णन । सभी प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रथों-सुश्रत, चरक श्रादि में पाया है। इतना ही नहीं प्रत्युत लोबान और तेजपात प्रभति के साथ अहलोट तथा अहलीम नाम से इसका ज़िकर यहूदी धर्म ग्रन्थों । में भी पाया जाता है ।(साम ४५ ८, कहा) ७ . १७)। डीसकरीदूस (Dioscovides) के कथनानुसार यह भारत वर्ष एवं अरब से यूरूप में लाया गया । ईटियस (Etius) से पश्चात्कालीन लेखकों ने एलोबुड (Aloe fool ) नाम से इस औषध का उल्लेख किया है, और इसी नाम से यह अब तक युरूप में प्रसिद्ध है। अगर का संस्कृत नाम | यातना विन-सेरापियन-ने हिन्दी, मंडली, सिन्फी और कमारी नाम से इसके चार भेदों का वर्णन किया है। दशवीं शताब्दि में इब्नसीनाइसके सम्बन्ध में निम्न बिवरण देते हैंमंडली हिंदी या (पहाड़ी) सनंदूरी,कमारी, सम्फी और काकुली,किस्मूरी ये दोनों मदुल मधुर होती हैं इनमें से सबसे खराब प्रकार हलाई, कम्ताई, ममताई, लबथी या रस्ताथी है। मंडली सर्वोत्तम है, इसके बाद सनंदूरी धूसर वर्ण युक, वसामय एवंलीय भारी श्वेत धारियों से रहित और धीरे धीरे जलने वाली होती है । कोई कोई भूरीसे काली अगर को उत्तन ख़्याल करते और सबसे अधिकतर काली,श्वेत धारी रहित वसामय तैलीय और धीरे धीरे उ.लने वाली “कमारी" होती है। संक्षेप में सर्वोत्तम अगर वह है जो काली, भारी, जल में डूबने वाली, चूर्ण करने पर रेशा रहित हो, तथा जो जल में न डूबे वह अच्छी नहीं । अरब यात्री भी अगर को लगभग उन्हीं नामों से पुकारते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy