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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्वत्थ ७७४ धाश्वत्थ होती है। उक्र दूध में रबड़ या धूप होता है। इसके वृक्ष में लाख लगता है जो श्रौषध कार्य में पाता है । इसकी शाखों और पेड़ में से वट वृक्ष की तरह हवा में जड़े फूटती हैं जिनको पीपल की दाढ़ी कहते हैं; परन्तु ये वट के वरोह इतने प्रशस्त नहीं होते और न इनसे वृक्ष ही तैयार होते हैं। उक्र दाढ़ी प्रोवधकार्य में पाती है। इसके कतिपय दरारों से एक प्रकार की श्यामवर्ण की गोंद भी निकलती है। नार जनसाधारण का यह विश्वास है कि वट, पीपल, गूलर, पाकर तथा अंजीर भति वृतों में फूल आते ही नहीं, परन्तु उनका यह विचार सर्वथा मिथ्या है और इससे उनकी उद्भिविद्या विषयक अज्ञता सूचित होती है। पीपल के फल और फूल को शकल में कोई विशेष अन्तर न रहने के कारण ऐसा हो जाना सम्भव है। शास्त्रों में इसके अस्पष्ट रहने के कारण ही इसको गृहपूष्प कहा गया है। सर्वसाधारण जिसको पीपल का कच्चा फल कहते हैं वही इसकी पुरुप है। इसका निश्चित् ज्ञान : नस्पतिशास्त्र के अध्ययन द्वारा हो सकता है। ज्ञात रहे किरायः वृद रात्रि के समय एक प्रकार का मनुष्य-स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वायव्योड़ा करते हैं; परन्तु अर्वाचीन विज्ञान के अन्वेषणानुसार उसके विपरीत अश्वस्थ में यह बात नहीं पाई जाती। यही कारण है कि हिंद लोग इसको चिरकाल से देवता तु य मानते आए हैं एवं उनके यहाँ इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। देखो-अञ्जोर । रासायनिक संगठन-त्वक में कषायीन (Tannin ), कू(कौ)चुक ( Coutch. ouc ) अर्थात् भारतीय रबर और मोम (W..x) आदि पाए जाते हैं। प्रयोगांश-पत्र, पत्रमुकुल, स्वक् , फल, बीज, पीपल की दाढ़ी, दुग्ध, काष्ठ, मूल और निर्यास, तथा लाक्षा। औषध-निर्माण-क्वाथ, मात्रा अाध पाव ।। पञवल्कन कषाय (च.द०), पञ्चवल्कलादि तैलम् प्रभृति । प्रभाव-पत्रमुकुल-रेचक; त्वक्-संग्राही; फल-कोष्ठकर दा मृदुरेचक; बोज-शीतल, मदुरेचक, शैत्य कारक और रसायन । अश्वत्थ के गुण-धर्म तथा उपयोग श्रायुर्वेदीय मनानुसार-पीपल का पका फल मधुर, कपेला, शीतल, कफपित्तनाशक एवं रक्रदीप व दाह का शमन करने वाला और तत्क्षण मोनिदोषहारक है । अन्यच्च अश्वत्थ वृक्ष के पा फज अत्यन्त हा एवं शीतल हैं और पित्त, रत के रोग, विष व्याधि, दाह, वमन, शोप तथा अरुचि दोष (अरोचक का) नाश करने वाला है। अश्वस्थिका (पीपली) मधुर, कषेनी है तथा रक्तपिनहर, विष एवं दाह प्रशामक और गर्भवतो के लिए हितकारी है। रा० नि० व० ११ । दुर्जर और शीतल है । मद. च०५। दुर्जर, शीतल, भारी, कषेला, रूक्ष, वर्ण प्रकाशक, योनि शोधनका, पित्त, कफ, व्रण और रुधिर के विकार को दूर करता है । भा० पू० १ ० वटादिव० । अश्वत्थ के वैद्यकीय व्यवहार चरक-(१)वातरक्त में अश्वत्थ स्वक-पीपल की छाल के क्वाथ में मधु का प्रक्षेत्र देकर सेवन करने से दारुण रक्तपित्त प्रशमित होता है। यथा "वाधिद्रुम कषायन्तु पिवेत्तं मधुना सह । वातरक्तं जयत्याशु त्रिदोषमपि दारुणम्॥" (चि० २६ अ०) (२)वणाच्छादनार्थ अश्वत्थ पम्र अश्वत्थके पत्र से व्रण प्रच्छादन करें । यथा"*विप्पलम्य च । व्रण प्रच्छादने विद्वान्।" (चि०१३ १०) (३)व्रण में अश्वत्य खक-प्रश्वत्थ त्वक चूर्ण के क्षत पर प्रवचूर्णन करनेसे वह शीघ्र पूरित होता है अर्थात् भर जाता है । यथा "ककुभोदुम्बराश्वत्थ-- त्वचमाश्वेव गृहणन्ति त्वक् चूर्णैश्चूर्णिता व्रणाः॥" (चि० १३:०) सुश्रुत-(१)नीलमेह में अश्वस्थ वक् For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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