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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अवलेह ७३० वले ] ( १ ) चटनी, चाटने वाली कोई वस्तु, भोज्य विशेष | लेई जो न अधिक गाढ़ी और न अधिक पतली हो और चाटी जाए। (२) श्रौषध जो चाटा जाए । लेह्योषध | प्राश: । जिह्वा द्वारा जिसका आस्वादन किया जाए उसे श्रवलेहिका कहते हैं । च० द० ज्व० चि० । लऊ - अ० | लॉक Loch, लिंक्स Linctus, लिंक्चर Lincture, इलेक्चुअरी Electuary- इं० । नोट- यूनानी वैद्यक एवं डॉक्टरो अवलेह निर्माण क्रमादि के विशेष विवरण के लिए क्रमशः लड़क तथा लिंकूटस शब्द के अन्तर्गत और श्रायुर्वेदीय वर्णन के लिए लेहः शब्द के श्रन्त देखें | Fare आदि अर्थात् स्वरस, फाराट एवं कल्क प्रभृति को छानकर पुनः इतना पकाएँ कि वे गाढ़े हो जाएँ । इसे रसक्रिया कहते हैं और यही अवलेह वा लेह कहलाता है । इसकी मात्रा एक पल ( ४ तोले ) की है । यथा क्वाथादीनां पुनः पाकाद्धनत्वंसा रसक्रिया । सोsवलेहश्वलेहः स्यात्तन्मात्रा स्यात्पला. न्मिताः ॥ यदि अवलेह में शकर प्रभृति डालने का परिमाण न दिया हो तो श्रौषधों के चूर्ण से चौगुनी मिश्री और गुड़ डालना हो तो चूर्ण से दूना डालें । जल या दूध आदि द्रव डालना हो तो चौगुना मिलाना चाहिए। यथा सिता चतुर्गुणाकार्या चूर्णाच्च द्विगुणीगुड़ः । द्रवं चतुर्गुणं दद्यादिति सर्वत्र निश्चयः । अवलेह सिद्ध होने की परीक्षा दव से उठाने पर यदि वह तंतु संयुक्त दिखाई दे, जल में डालने पर डूब जाए, द्रव रहित अर्थात् खर हो, दबाने पर उसमें उँगलियों के निशान पड़ जाएँ और वह सुगंध युक्र और सुरस हो तो उसे सुपक्त्र जानना चाहिए। यथासुपक्वे तन्तुमत्त्वं स्यादवले होऽप्सु मज्जति । खरत्वं पीड़ित मुद्रा गन्धवर्णं रसोद्भवः ॥ जहाँ पर अवलेह के अनुपान की व्यवस्था न दी गई हो वहाँ पर दोष और व्याधि के अनुसार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रवल्गुजः, -जा दूध, ईख का रस, पञ्चमूल के काथ द्वारा सिद्ध किया हुआ यूष और अडूसे के क्वाथ में से किसी एक का यथा योग्य अनुपान देना हितकारी है । दोषानुसार अनुपानों की मात्रा कफ व्याधि में १ पल, पित्त में २ पल और वात में ३ पल की मात्रा प्रयोग में लाएँ । मुख्य मुख्य श्रायुर्वेदोक्त श्रवलेह निम्न हैं:कण्टकार्यवलेह, च्यवनप्राशावलेह, कूष्मांडा. वलेह, खराडसूरगावलेह, अगस्त्य हरीतक्यवलेह, कुटजावलेह, कुटजाष्टकावलेह इत्यादि । अवलेहनम् avalebanam-सं० क्लो० अवलेहन avalehana - हिं० संज्ञा पुं० खाना लेहन, प्राशन, चाटना, जीभ की नोक लगाकर ( Licking, tasting with the tongue.)। ( २ ) चटनी | अवलेह्य avalehya - हिं० वि० [सं०] प्राश्य । चाटने योग्य | अवलो avalo - ते० घोर राई, काली राई, राई, असल राई, मकरा राई - हिं० । राजिका-सं० | ( Brassica nigra, मेमो० । Koch.) अवलोकन avalokana - हिं० संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अवलोकित, अवलोकनीय ] दर्शन, ईक्षण, दृष्टि देना, देखना ( View, sight, the 1 oking at any object.) । ( २ ) निरीक्षण | अबल्कः avalkah- सं० पु ं० मेपशृङ्गी, मेढ़ासिंगी | ( Pistacia Integerrima, Stewart . ) वै० निघ० । श्रवल्गजा avalgaja - सं० स्त्री० कृष्ण सोमराजी, बाकुची | Vernonia anthelmintica ( 'The black var. of - ) । हाकुच बं० । भैष० भल्ला० गुड़ | श्रवल्गुजः, -जा avalguji h-ja - सं० पु०, स्त्री० (१) कृष्ण सोमराजी । ( The black var. of Vernonia anthelmin - tica.) सु० चि० २५ श्र० । (२) सोमराजी, For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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