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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्जुन (३) उच्च द्रवणायुक्त एक सैन्द्रियकाम्ल और फाइटॉस्टेरोल ( Phytosterol )। ( ४ ) एक सैन्द्रियक एस्टर ( Ester ) जो धात्वम्ली द्वारा सहज में ही हाइड्रोलाइज्ड (Hydrolysed ) हो जाता है । ३३१ ( ५ ) कतिपय रञ्जक द्रव्य, शर्करा प्रभुति । उपर्युक्त विश्लेषण द्वारा यह बात स्पष्ट होगई कि इसमें कोई ऐसा प्रभावात्मक सत्व, जो इसके हृदय बलकारक प्रभावका कारण सिद्ध हो, जिसमें एतद्देशीय जनता की महान श्रद्धा है, नहीं पाया जाता ! पृथक्करण काल में पेट्रोलियम, ईथर, मद्यसारीय और जलीय सारों से प्राप्त विभिन्न अंशों की ध्यानपूर्वक परीक्षा की गई; परन्तु खटिक यौगिकों के सिवा कोई अन्य द्रव्य जो हृदय वा किसी अन्य धातु पर प्रभाव उत्पन्न करें, नहीं पाए गए। रञ्जक पदार्थ को वियोजित कर | उसकी परीक्षा की गई, पर परिणाम पूर्ववत् रहा । अभी हाल में केइयस ( Caius ), म्हैसकर ( Mhaskar ) तथा श्राइजक ( Isaac ) ( १६३०) ने टर्मिनेलिया अर्थात् हरीतकी जाति के सामान्य भारतीय भेदों के द्रव्यगठन का विस्तृत अध्ययन किया, परंतु क्षारोद ( alkaloid ) वा मध्वोज ( Glucoside ) अथवा सुगन्धित या स्थिर तैल (Essential oil) के स्वभाव के किसी प्रभावात्मक द्रव्य के प्राप्त करने में वे समर्थ रहे । सम्पूर्ण १५ प्रकार की छालों को भस्म कर परीक्षा करने पर उनमें एक श्वेत, मृदु, निर्गंध और निःस्वाद भस्म वर्तमान पाई गई । ( इं० ड० इं० ) प्रयोगांश-स्वक्, पत्र ( तथा अर्जुन सुधा ) । मात्रा - स्वक् चूर्ण-२-६ आना भर | साधारण मात्रा -२ तो० । औषध निर्माण - जुनघृतम्, अजु'नाथ घृतम्, अजुन त्वक् क्वाथ, (१० में १ ) मात्रा - श्राधा से १ अाउंस; और त्वक् चूर्ण । अजुन के गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार अर्जुन कला, उष्ण वीर्य, कफघ्न तथा प्रशोधक है और Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजुन पित्त, श्रम तथा तृषानाशक एवं वातरोग प्रकोपक है । धन्वन्तरीय निघण्टु । रा० नि० ६० ६ । ककुभ अर्थात् श्रर्जुन शीतल, करेला, हृदय को प्रिय ( ), क्षत, क्षय, विष और रुधिर विकार को दूर करता है तथा मेद रोग, प्रमेह, अणरोग एवं कफ पित्त को नष्ट करता है । भा० पू० १ भा० वटादि व० । वा० सू० १५ श्र० - न्यग्रोधादि । "जम्बू द्वयाजु नकपीतन सोम वल्क ।" पार्थ (अर्जुन) तत तथा भग्न में पथ्य और तथा मूत्रकृच्छ में हितकर है। ( राजवल्लभ ) । रत्र स्तम्भक अर्जुन के वैद्यकीय व्यवहार चरक - रक्तपित्त में अजुन त्वक् – (१) अर्जुन की छाल को रात्रिभर जल में भिगो रक्खें प्रातः उक्त जल ( हिम ) को या अर्जुन की छाल के रस वा छाल को जल में पीसकर किम्वा जुन की छाल द्वारा प्रस्तुत क्वाथ के पान करने से रकपित्त प्रशमित होता है । (चि० ४ श्र० ) "धनञ्जयोदुम्बर निशिस्थिता वा स्वरसीकृता वा कल्कीकृता वा मृदिता श्रुता वा । एते समस्ता गणशः पृथग्वा रक्रं सपित्तं शमयन्ति योगाः” । (२) गाच्छादनार्थ श्रज्जुनपत्र - जुन पत्र द्वारा व्रण ( चत) को श्राच्छादित करें । यथा - "कदम्बाजुन XI व्रण प्रच्छादने विद्वान् ।” ( त्रि० १३ अ० ) । सुश्रुत - शुक्रमेह में अजुनत्वक - शुक्रमेही को अर्जुन की छाल वा श्वेत चन्दन का क्वाथ पान कराएँ । यथा शुक्रमेहिनं ककुभ चन्दन कषायं वा । " ( चि० ११ अ० ) । वाग्भट - मूत्राघात में अर्जुन स्व-मूत्ररोध होने पर अर्जुन की छाल का क्वाथ पान कराएँ । यथा "कषायं ककुभस्य वा" ( चि० ११ प्र० ) (२) व्यङ्ग में अजुन त्वम्पंग ( यौवन पिड़का वा मुसा ) रोग के प्रतीकारार्थ अर्जुन स्व को पेषण कर मधु के साथ प्रलेप करें। यथा For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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