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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका ५५० अम्लिकापानम् प्रवाहिका में बीजके रक्त बाह्यस्वक् के चूर्ण को क्षत में इसका कवल हितकर है। इमली के बीज ड्राम की मात्रा में मोदक रूप से उपयोग में लाते श्राम वा रक्रातिस्गरमें व्यवहृत होते हैं। स्वयं शुष्कहैं। स्वाद हेतु इसमें तिगुना जीरा का चूर्ण भूत इमली की छाल का क्षार मूत्राम्लता तथा और पर्याप्त परिमाण में खजूर खंड डालते हैं। पूयमेह में क्षारीय औषध रूप से प्रयुक्त होता है। ___ इसकी छाल की भस्म का पाचक रूप से (भार० एन० खोरी, भा०२ प्र. २३१)। श्रान्तरिक उपयोग होता है । छाल को सैन्धव के अमिलका वृक्ष के वाह्योपरि त्वक् द्वारा साथ एक मृत्तिका पात्र में रखकर जला लें । जब वङ्गभस्म-निर्माण-क्रम श्वेत भस्म हो जाए तब चर्ण कर रखें। १ से २ सर्व प्रथम इमली वृक्ष की ऊपरी शुष्क छाल ग्रेन की मात्रा में अजीणं तथा उदरशूल की यह को एकत्रित कर उसके छोटे छोटे टुकड़े करले, एक उत्तम औषध है । मुख एवं कंठक्षत के निवा- किंतु बारीक चूर्ण न करें। फिर टाट श्रादि के रणार्थ इसकी भस्म को जल में घोल कर इसका टुकड़े की एक लम्बी थैली बनाएँ। उसमें नीचे गण्डूष कराते हैं । (इं० मे० मे०) एक अंगुल मोटा उक्त इमली के टुकडों को बिछा आर. एन. चोपरा दें और ऊपर से शुद्धवंग ( Tin ) के कण्टक इमली के बीज ( चियाँ) की बाहरी लाल वेधी पत्र के छोटे छोटे टुकड़े काटकर थोड़ी थोड़ी स्वचा प्रवाहिका एवं अतिसार की उत्तम औषध दूरी पर रख दें और ऊपर से फिर उक्र इमली के ख़याल की जाती है। अतएव १० ग्रेन (५ टुकड़ों को बिछा दें। इसी भाँति थैली को पूरी रत्तो) की मात्रा में इसके बीज का चूर्ण सम कर उसकी संधियों को भली प्रकार कस कर सी भाग जीरा व शर्करा के साथ दिन में दो तीन बार दें। पुनः कपरौटी कर सुखा ले। तदनन्तर उसे उपयोग किया जाता है । प्रादती कब्जा में इसके गजपुट में रख अग्नि दें। स्वांग शीतल होने पर पक्व फल का गूदा अत्यन्त प्रभावात्मक कोष्ट- आहिस्ते से फूल हुए वंग के टुकड़ों को एकत्रित मुदुकर गिना जाता है । नीबू के अभाव में करले। यह साराम श्वेत वंग की भस्म प्रस्तुत ऐरिस्कॉब्युटिक (Antiscorbutic) गुण होगी । के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। - उपयोग-सम्पूर्ण वीर्यरोगों यथा प्रमेह, (ई० २० ई० पृ० ५६७) शुक्रमेह, शीघ्रपतन और स्वप्नदोप प्रभ ति के हिन्दुस्तानी वैद्य-इमली को शीतल लिए रामवाण औषध है। यह सैकड़ों बार पाचक, साफ दस्त लानेवाली, दस्त की कब्ज़िायत परीक्षा में प्राचुकी है। और घर में अत्यंत उपयोगी गणना करते हैं। - मात्रा व सेवन-विधि-१ रत्ती से ४ रशी तक इमली की फली के ऊपर की छाल की राख को . उपयुक औषध वा अनुपान के साथ प्रातः सायं . खारके सदृश दवा में डालते हैं। पत्तोंको सूजन पर। सेवन करें। बाँधने से सूजन उतर जाती है। अम्लिकाकन्दः amlika-kandah-सं० पु. पक्क तिन्तिड़ी-फल-मज्जा स्कर्वी रोग प्रतिषेधक, | अम्लनालिका-म० । वै० निघ०। श्रमहर एवं मुदुरेचक है । यह ज्वर, तृष्णा, अंशु- अम्लिका(प्र)पान(क)amlikipanaka-हिं पु.) घात (सर्दी गर्मी) एवं पित्तप्रधान वान्ति रोग | अम्लिकापानम् amlika-pānam-संकी। में व्यवहृत होती है। रेचन हेतु, यह चिरकारी । तिन्तिड़ीपानक, अम्लिकाफल-प्रपानक, अमली कोष्ठबद्ध रोग में हितकर है। चोट लगने के का पन्ना । तेतुल पाना-बं०।। कारण यदि किसी अंग में सूजन हो तो कच्ची X विधि-पक्की अमली को जल में भिगोकर खूब • इमली और इमली पन को पीसकर उष्णकर ले मलले; उसमें सफ़ेद बूरा, मरिच, लौंग और और शो थयुक्त अंग पर इसका प्रलेप करें । मुख । कपूर श्रादि डालकर सुवासित करले। इसको For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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