SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 590
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अम्लिका ५४८ अम्बिका दो प्रकार की होती है-(१) लाल और (२) भूरे रंग की। इन दोनों में लाल जाति को उत्तम होती है । इसलामी हकीम इमली के गूदे को हृद्य, संग्राही, खुलासा दस्त लाने वाला, पैत्तिक वमनावरोधक, रेचन द्वारा पित्त एवं विदग्ध दोषों से शरीर को शुद्ध करने वाला मानते हैं । जुलाब लाने को जब इसका उपयोग करना हो तब इसके साथ अन्य प्रवाही बहुत थोड़े देने चाहिए। कक्षत में इमली के पानी के कुल्ल करने से लाभ होता है। बीज को उत्तम संग्राही बतलाया जाता है तथा उबाल कर विस्फोटक पर इसका उत्कारिका ( Poultice ) रूप में उपयोग किया जाता है। जल में पीस कर कास तथा काग लटक पाने में इसको शिर की चंदिया पर लगाते हैं। इसके पत्र को जल के साथ कुचल कर दबाकर रस निकालने से एक प्रकार का अम्ल द्रव प्रस्तुत होता है। इसको पैत्तिक ज्वर एवं मूत्र दाह में लाभप्रद बतलाया जाता है। प्रादाहिक : शोथों तथा वेदनाके निवारणार्थ इसकी उत्कारिका उपयोग में पाती है । नेत्राभिष्यन्द में आँख पर | इसके पुष्प की पुल्टिस बांधते हैं । पुष्पके रस का रक्तार्श में अान्तरिक उपयोग होता है। इसके वृक्ष की छाल माही और पाचक ख्याल की जाती | है। (मखूजनुल अवियह ) देशी लोग इसके वृक्ष का पवन स्वास्थ्य को हानिप्रद मानते हैं। कहते हैं कि इमली के वृक्ष के नीचे तंबू बहुत दिन रखने से उसका कपड़ा सड़ जाता है। यह भी कहा जाता है कि उसके वृक्षके नीचे अन्य पौधे भी नहीं उगते । परंतु यह सर्वव्यापक नियम नहीं। क्योंकि हम लोगों ने उसके नीचे चिरायता एवं अन्य छाया प्रेमी पौधों .' को प्रायः उत्पन्न होते हुए देखे हैं । (डीमकफा०६.१ भा०) हृदय और प्रामाशय को बल प्रदान करता, ब्रह्मास को शमन करता, मूर्छाहर, शिरोशूल को लाभप्रद और संक्रामक वायु के विष को दूर करता है। इसके बीज संग्राही और वीर्यस्तम्भक हैं। ख नाक में इसके पत्र के क्वाथ का गण्डूष कराना जाभप्रद है। शुक्रांद्रकर्ता और योनिसंकोचक है । इसकी छाल पीस कर छिड़कने से व्रणपूरण होता है । (मु० मु०, बु० मु०) एलोपेथिक मेटीरिया मेडिका तथा तिन्तिडीफलमज्जा एलोपैथी चिकित्सा में पक्क तिन्तिड़ी-फल-मजा औषधार्थ व्यवहार में पाती है। यह बिगड़े नहीं, इस हेतु, इसमें शर्करा मिलाकर रखने हैं । अम्लिका द्वारा प्राप्त अम्ल (निन्तिड़िकाम्ल ) अर्थात् टाछुरिक एसिड ( Tartaric acid) भी डॉक्टरी चिकित्सा में व्यवहृत है। प्रस्तु, देखो-एसिडम टार्टारिकम् । यह दोनों ही उन चिकित्सा प्रणाली में प्रॉफ़िशल हैं। इनमें से प्रथम अर्थात् इमली के फल के गूदे का यहाँ वर्णन किया जाता है। मिश्रण-यूरोप में कभी कभी इसमें ताम्र चूस का मिश्रण कर देते हैं। __ यह पड़ती है-कन्ने विशयो सेनी के ७५ भाग में भाग । - प्रभाव-लैकटिह ( कोष्ठमृदुकर ) तथा रेफिरजेरण्ट (शैत्यकारक ) । मात्रा-1 से १ अाउंस वा अधिक । . . प्रभाव तथा उपयोग अकेले इसका क्वचित ही उपयोग होता है। एक पाउंस की मात्रा में यह कोष्ठ मृदुकर है। इससे प्रान्त्रीय कृमिवत् प्राकुञ्चन की वृद्धि होती है। इसको शैत्यकारक बतलाया जाता है और टैमरियड ह्वे ( Tamarind whey ) या अम्लिकावारि रूप में कभी कभी ज्वरों में इसका उपयोग किया जाता है। विधि-थोड़े गरम पानी में २॥ तो० इमली का मूना मिलाकर फांट प्रस्तुत कर उसमें चौथाई दुग्ध मिलाएँ। वानस्पतिक, सेव और निम्बुक प्रभृति अम्लों की विद्यमानता के कारण इसका शैत्यकारक प्रभाव होता है। अन्य मत ज्वर में इमली का पन्ना (अम्लिकापान ) देने से तृषा कम हो जाती है और किसी प्रकार चित्त को शांति लाभ होता है । बालकों के मलावरोध में इसका मुरब्बा विशेष रूपसे लाभदायक होता है। (म० अ० डॉ० २ भा०)। • For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy