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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतादि तैलम् ४६५ अमृताधवलेहिका ( २ ) गिलाय, कुटकी, सोंठ. मुलेठी, इनका | गन्धमूल, पृष्टपर्णी, कुटकी, ऋद्धि, वृद्धि, मेदा, चूर्ण शहद के साथ चाटकर ऊपर गोमूत्र पीने से | महामेदा, गोखरू, कटेरी, बड़ी कटेरी, गिलोय, अाम वात नष्ट होता है । वृ० नि० र)। पीपल, रास्ना और असा सर्व तुल्य भाग ले अमृतादि तैलम् aantitaditailam-सं०प० कल्क बनाकर उसमें डाल मन्द मन्द अग्नि से देखो-अमृताद्यतैलम् । उक योग में देवदारु पकाएँ तो यह घृत सिद्ध हो । धन्वन्तरि जी के स्थान में तून पा रक्खा है। अमृत० सा. का कथन है कि इसके सेवन से ( पान, अभ्यंग, गलगण्ड चि०। नस्य) शोष, दाह, वात रन, क्रोष्टुशीर्ष, खजअमृतादि तैलम् amritādi-tail.a - सं०क्ली० वात, उरुस्तम्भ, दारुण वातरक्र, वातकष्ट, गृध्रसी गिलोय का रस, नीमकी छाल, हींग, हड़, कुड़े की और वातकंटक दूर होता है। उक्त नाम के छ: छाल, बला, अतिवला, देवदारु श्रोर पीपल के : प्रकार के योग भावमिधा जी ने अपने ग्रन्थ में कल्क से सिद्ध किया हुअा तेल गलगण्ड में हित वर्णन किए हैं। है । वृ०नि० र०। गिलोय, शारिवाँ, लघुपंचमूल, अड.सा, खिरेटी अमृतादि वटो amitali-vati-सं० स्त्रो० इनका पञ्चांग पृथक् पृथक् ४० चालीस तो०, को विष २ भा०, कपई भस्म ५ भा०, मिर्च १ भा० १०२४ तो० जल में पकाएँ । जब चौथाई शेष जल से मईन कर मुद्ग प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। रहे तब उसमें पीपल, चंदन, हाऊबेर, खस, पित्त. यह अग्निमान्द्य, त्रिदोष, और कफ के रोगों में | पापड़ा, सोनापाठा, मुलहठी, चिरायता, नीलहित है। मा० प्र० १ भा. ज्वर चि०। कमल, इन्द्रजौ, नागरमोथा,सोंठ, कुटकी, धमासा, अमृतादिस्वरसः ॥mitadisvalasab-सं० दालचीनी, तेजपात, अड़ सामूल, वायमाण, . पु. गिलाय हरी ले कुचल कर रस निकाल कर (अभाव में बनफ्सा प्रत्येक २-२ तो० । इनका स्वच्छ वस्त्र से छाने । यह रस २ तो० और शहद कल्क और इस कल्क के समान भाग बकरी का ६ मा० डालकर पीने सेममेह दूर होता है। दुग्ध, ६४ तो. गोवृत मिलाकर सिद्ध करें । यां० तर० स्वरसादि सा० । इसके सेवन से भयानक राजयच्मा, सन्निपात, अमृतादिहिम amitadihima-सं०क्ली० गिलोय रक्तपित्त, श्वास, कास, उरःक्षत, दाह और शोथ . का हिम बनाकर प्रातः काल पीने से पित्त ज्वर दूर होता है । वंग० से० सं० २ श्लो० ६५, : नष्ट होता है। वृ०नि०र०। ६६ प्र० | राज यक्ष्मा० चि०। अमृताद्यगुग्गुलुः amritadya-gugguluh -सं० पु० गिलोय १ भा०, इलायची २ भा०, अमृताद्यचूर्णम् amritadya-churnam-सं० वायविडंग ३ भा०, इंद्रजौ ४ भा०, बहेड़ा ५ क्ली० आमवात में प्रयुक्र योग-गिले।य, सोंठ, भा०, हड़ ६ भा०, श्रामला ७ भा० और शु. गोखरू, मुण्डी, वरुणछाल, प्रत्येक तुल्य भाग ले गुग्गुल ८ भा०। इनको शहद में मिलाकर खाने चूर्ण प्रस्तुत कर सेवन करने से श्रामवात दूर से स्थूलता भगन्दर और पिडकाएँ दूर होती हैं। होता है। भा० म०२ भा०। भा०प्र० मध्य. खं०२।। | अमृताद्य तैलम् amritadya-tailam-सं० अमृताद्यघृतम् anslitadyaghritam-सं० क्ली० गलगण्ड रोग में प्रयुक्त योग-गिलोय, क्ली० (१) आमवात में प्रयुक्रयोग-गिलोय ४०० नीम की छाल, अम्ल वेतस, पीपल, देवदारु, तो०, को १०२४ तो० जल में पकाएँ, जब चौथाई दोनों बला इनसे सिद्ध तैल गलगण्ड रोग को शेष रहे तब उस क्वाथमें ६४ तो० घृत तथा चौगुना दूर करता है । वं० सं० गलगण्ड चि०। गोदुग्ध, काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक मताधवलेहिका anmritādyavalehika सतावर, विदारीकन्द, मुलहठी, नील कमल, अस. -सं० स्त्री० हड़, कुटकी, सोंठ, मुलहठी शहद में For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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