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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमूल ४५ अमृतकल्प-वटी (१) मूर्तिहीन, प्राकृति रहित (Formless.) | (Simple poison )। (६) दुग्ध निराकार । (२) अप्रत्यक्ष । अगोचर । (Milk)। रा०नि० व० १५। (१०) अनूल amāla -हिं० वि० [सं०] अन्न । ( Corn) हे० च०। (११) औषध अमूलक amulaka मूल रहित, निमूल, ( Medicine ) | रा० नि० व०२०। जड़शून्य । ( Destitute of a root or (१२) शृ'गी विष, सींगिया, बच्छनाग (Ac. origin.) onite)। (१३) स्वण,सोना । ( Gold ) अमूलक amulak-हिं० वि० मूलशून्य, निमूल, (१४) भदय द्रव्य ( Edible thing)। अप्रामाणिक | हे० च० । (१५) यज्ञ के पीछे की बची हुई अमूला amula-सं० स्त्री. (१) अग्निशिखा सामग्री । (१६) धन | (१७) हृद्य पदार्थ । वृक्ष, लाङ्ग ली। ईपलांगुलिया-बं० । वै०निघ० । (८) सुस्वादु द्रव्य । मीठी वा मधुर (२) अर्कपत्रा । के। . वस्तु । अचूस amusa-अजवाइन, नानवाह । (Ligu प्रमृत कन्दा amrita-kanda-सं० स्त्री० कन्द sticum A jowan ). इ० हैं. गा०। । गुडची-हिं० । कन्दगुलवेल-मह० । वै० निघ०। See-kanda-guduchi. अमृणालम् amrinalam-सं० क्ली० (१) अमृतकर amrita-kal-हिं० संज्ञा प० [सं०] श्रमणाल, लामजक, श्वेत उशीर | (Andropogon laniger ) रा० नि० व० १२, चन्द्रमा, शशि, जिसकी किरणों में अमृत रहता है। निशाकर । ( The moon) भा०पू०१ भा० क०व०, मद० व०३। (२) उशीर, खस-हिं० । वेणार मूल-बं० । अमृत कला निधि amritakalanidhi-सं. ( Andropogon murricatus) रत्ना, पु. वच्छनाग २ मा०, कौड़ी भस्म ५ मा०, रा०नि० व० १२ । च० द० अर्श चि. कालीमिर्च १ मा०, बारीक चूर्णकर जल से मूंग प्राण दागुड़िका। प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। गुण-ज्वर, पित्त और अमृतः amritah सं० ) ... कफज अग्निमांद्य को नष्ट करता है। वृ• नि० अमृत amrita-हि. संज्ञा पु पारद, र. ज्वरे। पारा ( Mercury)। ग०नि०व० १३। मृतकल्प भल्लातकः amrita-kalpa-bha(२) वन मुद्ग, बन मूंग (Phaseolus llāta kah-सं० पु. पका हुश्रा भिलावाँ trilobus) । रा०नि० व० १६ । देखो-मकु तीक्ष्ण वीर्य तथा अग्निके तुल्य होता है, इसका ष्टकः । अत्रि २ स्थान २ अ. । (३) धन्वन्तरि विधि पूर्वक सेवन करना अमृत कल्प होता है । "ना धन्वन्तरिदेवयोः" । मे तत्रिक। (४) वा० उ० अ०३६। बाराहीकंद ( Tacca aspera)। रा० अमृत-कल्प रसः amrita-kalpa-rasah नि. व. ७ । -ली. (५) वह वस्तु जिसके - सं० पु. अजीर्णाधिकारोक रस । शुद्ध पारद पीने से मनुष्य अमर हो जाता है। पीयूष, सुधा, तथा गंधक के समान भाग की कजली करें पुनः निर्जर, समुद्रोत्पन्न १४ द्रव्यों में से एक द्रव्य उक्र कजली का अर्ध शुद्ध विष ( वत्सनाभ) विशेष । ( Ambrosia, nectar)। (६) तथा रतना ही सुहागा (लावा किया हुआ) सलिल, जल, ( Water )| रा०नि० लेकर इसे यत्नपूर्वक तीन दिन तक भङ्गराज स्वव० १४। (.) घृत, घी (Ghee)। मे०, . रस की भावना दे मात्रा-मुद् प्रमाण । रा०नि० ५० १५, वै० निघ० वा० व्या० अमृत कल्प वटो amrita-kalpa-vati-सं० भुजङ्गी गुटी। "अमृत यज्ञशेषे स्यात पीयुषे स्त्री० पारा, गन्धक समान भाग लेकर कज्जली सलिल घृते"। मे। (८) सामान्य विष करें, फिर विष और सोहागा प्रत्येक पारे के बरा For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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