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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकल्प ४५ अभ्रकहरीतकी में प्रतिदिन दो बार २-३ ग्रेन तक शहद या पाँचो खाँसी, हृदय शूल, संग्रहणी, अर्श, प्रामताजे वासक स्वरस के साथ देने से लाभ होता है वात, सूजन, भयंकर पांडु, वात, पित्त कफ से इं० मे० मे० - पैदा हुए मत्य तुल्य महा वात व्याधि, अठारह अभ्र-कल्पः abhra-kalpah--सं. क्ली० अभ्र कुष्ठ इन्हें उचित पत्थ्य से यह अमक कल्प नष्ट की निश्चन्द्र भस्म, श्रामला, त्रिकुटा, विडंग करता है ।बङ्ग० सेन० स०रसायनाधिकारे। प्रत्येक समान भाग लेकर भागरे के रस अथवा अभ्रक गटको abhraka-gutika-सं० स्त्री० जल से दो पहर तक खरल में बारीक घोट, शुद्ध पारद, शु० गंधक, शु० विष, त्रिकुटा, भूना गोलियां बना फिर साया में सुखा लेवें । मात्रा- सुहागा, कान्तिसार भस्म, अजमोद, अहि फेन, १ मा० । गुण-इसकी १ गोली १ वर्ष तक तुल्य भाग, अभ्रक भस्म सर्व तुल्य लेवे और रोजाना खावें, दूसरे वर्ष २ गोलियां रोजाना, चित्रक के हाथ में एक दिन खरल कर मिर्च इसी तरह तीसरे वर्ष ३ गोलियां रोजाना ले, प्रमाण गोलियां बनावे, इसके एक मास पर्यन्त इस प्रकार तीन वर्ष पूरे होने पर यह अम्रक का सेवन करने से संग्रहणी दर होती है। अमृ० प्रयोग पूरा हो जाता है। इस योग से ३ वर्ष में सा० । संग्र. चि०। जो मनुष्य ४०० तो० अभ्रक खा जाता है वह | | अम्रक सन्धानम् abhraka-sandhānam वज्रवत दृढ़ शरीर वाला होजाता है । इसके तीन -सं० क्ली० उत्तम शुद्ध अभ्रक लेकर मेढकपर्णी, ही महीने के प्रयोग से रक्रविकार, क्षय, असाध्य वरुण त्वक, अदरख, दरडोत्पल (डानिकुनिशाक दमा, ५ प्रकार की खांसी, हृदयशूल, संग्रहणी, -बं०) मिश्री, अपामार्ग, वच,भांगरा, अजवाइन, बवासीर, प्रामवात, शोथ, भयानक पांडु, वात, चौलाई, गिलोय, सूरण, पुनर्नवा, इनके रस से पित्त, कफ के रोग, और १८ प्रकार के कुष्ट दूर पृथक पृथक भावना दें। पुनः तीचण धूप में हो जाते हैं। रस० यो० सा०। रस० या० सा०1 शुष्क करें', पुनः इसमें गिलोय सत्व ४ तो०, अभ्रक कल्प abhraka-kalpa सं० पु. पीपल ४ तो०, और शुद्ध पारद, त्रिफला, जो अत्यन्त काला तथा अत्यन्त चिकना, सोंठ, मिर्च, पीपल, अभ्रक तुल्य लेकर पारद काले सुरमे के तुल्य, वज्राभ्र पत्थल आदि की मूर्छा शहद, घृत से कर पुनः त्रिफला, दोषों से रहित शुद्ध हो ऐसे अभ्रक को त्रिकुटा के चूर्ण से मर्दन कर उत्तम चिकने पात्र लेकर बुद्धिमान वैद्य एक दृढ़ मिट्टी के पात्र में रख में मुंह बन्द कर रक्खें। मात्रा--१ रत्ती । चार या पांच दिन तक कड़ा पुट देवे, इसी तरह गुण--इसे एक रत्ती वृद्धि क्रम से भोजन के चौलाई के रस से पीस पीस कर पांच पुट पुनः आदि, मध्य, और अन्त में जल तथा खट्टे रस देवें । इसी तरह पूर्वोक्त क्रम से श्रामला, सोंड, से ले, और शुद्ध घृत, दधि, दूध, मांस, मद्य, मिर्च, पीपल, और वायविडंग के योग से पीस शाक और प्राचीन अन्न का सेवन करें तो अम्ल पीस चन्द्रिका रहित करें। पुनः जब चन्द्रिका पित्त, संग्रहणी, पार्श,कामलाको दरक और अग्नि रहित हो जावे तो अंगूठा के अग्र भाग से पीड़ित । की वृद्धि करता है। भेष०र० संग्र० चि० । कर गोलियाँ बनाय साया में शुष्क कर रक्खें। अभ्रक हरीतकी abhi aka-hritaki-सं-स्त्री. इसमें से एक एक गोली निरन्तर वर्ष पर्यन्त अम्रक भस्म ८० तो०, शद्ध गंधक २० तो०, खावें । दूसरे वर्ष में दो गोली निरन्तर खावे, स्वर्णमाक्षिक भस्म २४० तो०, हरीतकी ४०० इसी तरह एक एक गोली बढ़ाकर ४०० तोले तो०, आमला ८०० तो० इन सबों का चूर्ण कर अभ्रक सेवन करें तो शरीर बलवान हो और एक दिन जमीरी नीबू के रस की भावना देखें, वज्रतुल्य दृढ़ हो इसमें संशय नहीं है। इसके । पश्चात् मांगरा, सोंठ, छिरहटा, सिलावों, चित्रक तीन महीने के सेवन से रक्त रोग, क्षय, भयङ्कर | कुरण्टक, हाथी शुण्डी, कलिहारी, दुद्धी, जल For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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