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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभ्रकम् www.kobatirth.org ४५५ प्रमेह ( शुक्र ), और पूयमेह ( सुजाक गुणकारी और परीक्षित है । लता, के लिए असी ( सुदरिग्रह || २ - नौसादर १ तो०, फिटकरी १॥ तां०, अभ्रक २॥ तो०, नौसादर और फिटकरी को १ छ० पानी में घोलकर इसमें अभूक के बारीक पत्र को तर करें और रख दें | १ घंटा बाद उसे डंडे से कूँड़े में यहाँ तक रगड़ें कि दूधकी तरह सफेद हो जाए फिर उसमें बहुत सा पानी डाल दें । जब भूक तलस्थायी हो जाए तब पानी को निकाल दें | और ताजा पानी डालें, इसी तरह बारंबार करें जिससे जल में नौसादर श्रादि का स्वाद न रहे । फिर सुखाकर रख दें । गुण - उष्ण प्रधान ज्वर यथा पैत्तिक व त्रिक में १ मा शर्बत अनार के साथ दिन में तीन बार खिलाएँ । बालक को २ रत्ती से ४ रत्ती तक दे | अनेकों बार का परीक्षित और सदा से प्रयोग में आ रहा है । (रफोक ) । . ६ - भूक को कर्त्तरी से कतर कर रात्रि में अम्ल दधि में तर करें | प्रातः काल जल में धोकर काकजंघा बूटी के स्वरस में एक प्रहर खरल करें। धूल की तर हो जायगा । गुण-मूत्र प्रणाली के रोग, सूजाक, रक्त प्रमेह, रक्त निळीवन, नासारक स्राव, पुरातन कास, श्वास कष्ट, कुकुर खांसी, विविध उष्ण प्रधान ज्वर, शोथ, जलोदर, यकृत्प्रदाह, प्लीह शोथ, शुक्र प्रमेह और सैलान के लिए अनेकों बार का परीचित | मात्रा व सेवन विधि- १ रती से २ रत्ती तक मक्खनमलाई या पान के पत्र वा कोई अन्य उपयुक्त औषध के साथ सेवन करें ( म. रूज़न ) श्वेत अभ्रक भस्म विधि १ - श्वेताभू का चूर्ण करके प्रभुक के बराबर शोरा और गुड़ मिलाकर खूब करें और कूट कूट कर टिकिया बना सम्पुट में रख कर गजपुट की अग्नि दें। एक पुट में श्रभूक की श्वेत भरा बन जाती है। यदि एक बार में कुछ कसर रह जाय तो इसी तरह दूसरी बार करने पर अच्छी भस्म बन जाती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् नोट- श्वेत अभ्रक में न तो लोह होता है न कांत । पांशुजम् स्फटिकम् और शैलिका के यौगिक होते हैं इसको जब शोरे के साथ फूँका जाता है तब पांशुजम् धातु कज्जलो मेत् नामक यौगिक में और स्फटिकम् ऊम्मेत् में भिन्न तथा शैलिका कज्जलोष्मेत् से मिल जाते हैं । यह भस्म इतनी उपयोगी नहीं । यह बहुत कम लाभ करती हैं । मृत भस्म की परीक्षा अभ्रक की भस्म जब चमक रहित अर्थात् निश्चन्द्र तथा काजल के समान श्रत्यन्त बारीक हो तब उसकी ठीक भस्म हुई जाननी चाहिए अन्यथा नहीं । निश्चन्द्र भस्म को ही काम में लाना चाहिए क्यों कि यदि चमकदार हो तो यह विष के समान प्राण का हरण करने वाला और अनेक रोगों का कर्ता है। कहा भी है मृतं निश्चन्द्रतां यातं मरणं चामृतोपमम् । सछद्रं विषवद शेयं मृत्युद्वहु रोगकृत् ॥ मृतीकरण त्रिफला का काढ़ा १६ पल, गोघृत म पल, मृत अभ्रक १० पल इनको एकत्र कर लोहे की कढ़ाई में मन्दाग्नि से पचाएँ । जब जल और घी जल जाएँ केवल अभ्रक मात्र शेष रह जाए तब उतार शीतल कर रख छोड़े और योगों में बरतें। कोई कोई श्राचार्य केवल घृत में ही श्रमृतीकरण करना लिखते हैं। यथा तुल्यबृतं मृताभ्रेण लोहपात्रे विपाचयेत् । घृतं जीर्णं ततश्चूर्णं सर्व कार्येषु योजयेत् ॥ अर्थ- - श्रभ्रक की भस्म समान गोघृत लेकर लोह को कढ़ाई में चढ़ा उसमें अभ्रकको पचाएँ । जब घृत जलकर प्रत्रक मात्र रह जाए तब उतार कर सब कार्यों में योजित करें । अभ्रक के गुणधर्म तथा प्रयोग क की भस्म विभिन्न विधियों द्वारा प्रस्तुत कर अथवा उचित अनुपान भेदसे प्रायः सभी प्रकार की सर्द व गर्म बीमारियों में व्यवहृत होती है । उक्त अवसर पर यह प्रश्न उठाना व्यर्थ हो नहीं, प्रत्युत अपनी अज्ञानता का सूचक है, कि विभिन्न For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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