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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिद्रव जन ४४३ अभिन्यास हरो रसः अभिद्रव जन abhi-drava-jana-हिं० पु. अभिन्यासः, कः abhinyāsah,-kah-सं० उदजन । हाइड्रोजन ( Hyrodgen)-इं० ।। पु. सन्निपात ज्वर का एक भेद जिसमें वातादि श्रभिद्रव हरिक abhi-drava-harika-हि. | तीनों दोष कुपित होकर छाती में रस के बहने पुहाइड्रो-जोरिका अम्ल,लवणाम्ल,उदहरिकाम्ल, वाली नाड़ियों के छिद्रों में गमन करते हुए तथा नमक का तेज़ाय । Hyorochloric Acid. अपक्व रस से मिले हुए और अत्यन्त बढ़े हुए अभिधान abhidhāna--हि. संज्ञा पु० [सं०] [वि० अभिधायक, अभिधर्य] (१) आपस में विशेष गुथे हुए चतु, कर्ण, नासा, नाम, संज्ञा । (२) शब्द कोष शब्दार्थ ग्रन्थ । जिह्वा, त्वचा तथा मन में जाकर अति भयङ्कर ( A name, a vocabulary, a तथा कटिन अभिन्यास ज्वर को उत्पन्न करते हैं । dictionary.)। उक्र ज्वर में रोगी के कानों से सुनना, नेत्रों से अभिनव abhi-nava--हिं०वि० [सं०] नबीन दीखना बन्द हो जाता है और किसी प्रकार की नया, टटका, नव्य, नूतन ! रीसेण्ट( recent) चेष्टा (कर चरण प्रभृति चालन ), रूप का न्यु (new) (२) ताज़ा । ( Fresh)। दीखना, दृष्टि ज्ञान, गंध ज्ञान, शब्द ज्ञान मालूम अभिनव कामदेवो रसः abhinva-kāma- | नहीं होता तथा रोगी बार बार शिर को इधर उधर पटकता है और अन्न की इच्छा नहीं करता। devo-rasah-सं० पुपारा, गन्धक १ तो०, समानभागमें लेकर रक कमल पुष्प रसमें तीन दिन अप्रगट शब्द का बोलना, देह में सूई बिधने की तक भावित करें। फिर ४ मा० गन्धक मिलाकर सी पीड़ा होना और बार बार करवट लेना, बहुत कम बोलना, ये लक्षण होते हैं। यह अभिन्यास पूर्ववत् उक कमल और शंखिनी के रस से ज्वर विशेष कर असाध्य होता है और कोई एक पृथक् दृथक् भावना देवें, फिर शुष्क कर आतशी प्राध रोगी यथावत चिकित्सा होने पर बच भी शीशी में भरकर बालुका यंत्र द्वारा ३ प्रहर पकावे जाता है उसको अभिन्यास सन्निपात ज्वर कहते मात्रा-५ रत्ती । यह पित्त जनक प्रत्येक रोगों को | हैं। मा०नि० ज्व०। दूर करता है । र० यो० सा० । जिस समिपात ज्वर में सब दोष अत्यन्त अभिनवकामेश्वरः abhi-nava.kamehva बलवान और तीव हों, अत्यन्त बेहोशी हो, rah--सं० पु० वाजीकरण औषध विशेष । निश्चेष्टता हो, अत्यन्त विकलता तथा श्वास हो, देखो-अभिनव कामदेवो रसः । अधिकतर मूकता (गूं गापन ) हो, दाह हो, अभिनि abhini-ते. अफीम (Opium.)। मुख चिकना हो, अग्नि मन्द और बल की हानि स० फा० इं० । ई० मे० मे । हो उसे वैद्यों ने “अभिन्यास" कहा है। अभिनिवेश abhinivesh-हिं० संज्ञा पु. भा० म० खं० २ सन्निपा. ज्वर० । देखो[सं०] [वि० अभिनिवेशित, अभिनिविष्ट ] सन्निपात। (१) प्रवेश । (२) मनोयोग । लीनता । अभिन्नपुट abhinna-puat-हिं० संज्ञा पु. (३) प्रणिधान । मृत्यु शंका । गति । पैठ।। नया पत्ता। अभिनी abhini-द. अफोम (Opium.) अभिन्यास हरो रसः abhinyāsa-haroअभिन्नाशयः abhinnashayah--सं० पु० rasah-हिं. संज्ञा पु. शुद्ध पारा, शुद्ध शरीर के भीतरी कोठों का शुद्ध रूप अर्थात् जो गंधक, लौह भस्म, चांदी भस्म इन्हें सम भाग विदीर्ण न हुए हों । वा० उत्तर० अ० २६ । । लेकर, हुरहुर, सम्हालू, तुलसी, विष्णुकान्ता, For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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